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पढ़ते ही कोशा के हाथ कंपित हो उठे। पत्र नीचे धरती पर गिर गया। इस आकस्मिक परिवर्तन को देखकर चित्रा द्वार पर से दौड़ी-दौड़ी आयी और रूपकोशा मूर्च्छित होकर नीचे न गिर पड़े इसलिए उसे पकड़ लिया।
कोशा मूर्च्छित हो चुकी थी। शीतोपचार चला। अर्ध घटिका के बाद उसे होश आया। उसने कहा-'चित्रा! अनर्थ हो गया।'
_ 'कैसे? क्या हुआ ?' चित्रा ने स्थिर नजरों से कोशा को देखते हुए कहा।
'टूटे हृदय पर एक और आघात हुआ है। सम्राट् से मैंने स्थूलभद्र की याचना की थी और उन्होंने सुकेतु को भेजा है।'
'देवी! आप चिन्ता न करें। अजानकारी के कारण सम्राट् ने ऐसा किया है। आप अभी सम्राट् के पास जाएं और उनको सही जानकारी दें।'
'चित्रा ! अजानकारी दूर हो सकती है, किन्तु मंद-भाग्यता दूर नहीं हो सकती। कल सुकेतु भले ही आएं, पर मैं उससे पूर्व विषपान कर लूंगी।' कोशा ने कहा।
चित्रा बोली- 'देवी ! ऐसा आवेशआपके लिए शोभास्पद नहीं होगा।'
कोशा ने कहा- 'चित्रा! यह आवेश नहीं है, सतीत्व की संरक्षा का प्रश्न है।'
'तो फिर आर्य स्थूलभद्र जैसे पराक्रमी व्यक्ति की पत्नी सुकतु से भयभीत क्यों है ? सम्राट् का अज्ञान है, आपको तो नहीं। सम्राट् ने सुकेतु को स्वामी के रूप में भेजा है, आपने तो उसको मांगा ही नहीं था। देवी! आप बुद्धिशाली हैं....अपनी दुर्बलता मिटाकर जो प्रसंग आया है, उसका बुद्धिमत्ता से सामना करें।' ___'चित्रा ! तू मेरी सच्ची प्रेरणा है। अपने उद्दालक को कहना कि वह सावधान रहे जिससे कि सुकेतु कोई अनहोनी बात न कर बैठे। यदि सुकेतु कुछ अनुचित करने का प्रयत्न करे तो वह मेरी आज्ञा की राह न देखे। मैं सुकेतु को समझ लूंगी।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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