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४१. नया आघात
आकाश में बादल उमड़े। वर्षा हुई। बादल बिखर गए।
शरद् का चन्द्र खिला, विश्व के साथ खेल खेला और अदृश्य हो गया।
हेमन्त और शिशिर ऋतु भी आए, मनुष्य के हृदय को कंपित कर बीत गए।
बसन्त आया। फाल्गुन में पंचरंगी फूल वन-उपवन में खिले। तरुण-तरुणिओं के मन में काम राग उभरने लगा। दक्षिण का मंद-मंद पवन बहने लगा।
पशु, पक्षी, फूल, लताएं- सबके अन्तर में वसन्त के प्रभाव से मानो उनमें नवयौवन की तरंगें नाचने लगीं।
कवियों के हृदय भी हर्षित हो उठे। वसन्त को वर्धापित करने वाली काजल की मदभरी रेखाएं रूपांगनाओं के नयनों में खचित हुईं।
नवयौवन की आरती उतारने के इस बहुमूल्य समय में देवी रूपकोशा स्वामी के प्रत्यागमन की बाट देखने लगी।
__ आशा सजीव है या निर्जीव, कोशा विश्वस्त रूप से यह नहीं जानती थी। किन्तु आशा के जर्जरित तार से उसका मन प्रतीक्षारत होकर उलझ रहा था। परन्तु न स्वामीनाथ आए, न उनका कोई संदेश ही आया। कोशा के मन में एक प्रश्न बार-बार उभर रहा था कि क्या आर्यपुत्र अपनी प्राणवल्लभा को वास्तव में भूल ही जाएंगे? क्या बारह वर्षों तक बिताई गई मधुर रजनियों में से एक की याद भी उन्हें कंपित नहीं करेगी ? क्या जलक्रीड़ा की मस्ती, संगीत का रसास्वाद, वीणा की मोहक ध्वनि, वन-उपवन में प्रसन्नता से परिपूर्ण उत्सव, मदभरे यौवन की मस्ती, छलकती रातों में
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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