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संध्या के समय कोशा ने सोचा - सम्राट् की मेरे प्रति प्रीति है । मुझे पुत्री - तुल्य मानते हैं। मैं उनसे प्रार्थना कर अपनी समस्या का समाधान क्यों न करूं ?'
यह विचार आते ही उसने रथ तैयार करने की आज्ञा दी । चित्रा ने प्रस्थान की सारी तैयारी की ।
महालय के मध्यखंड में सम्राट् बैठे थे । अर्थमंत्री और स्थाध्यक्ष सुकेतु सम्राट् की सेवा में उपस्थित थे। श्रीयक महामंत्री पद पर नियुक्त हो चुका था, किन्तु उसमें अभी अपने महान पिता जितनी शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो पाया था । इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए अर्थमंत्री और सुकेतु सदा तत्पर रहते थे। सदा सम्राट् के निकट ही रहते थे।
इतने में ही एक परिचारिका ने प्रणाम कर सम्राट् से कहा - 'देवी रूपकोशा आपके दर्शन करने आयी है । '
'देवी रूपकोशा ?' सम्राट् को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा - 'उसे शीघ्र ही अन्दर भेजो ।'
रूपकोशा का नाम सुनते ही सुकेतु चमका। वह सावधान हो गया। रूपकोशा ने खंड में प्रवेश किया। सम्राट् को नमस्कार कर वह एक ओर खड़ी हो गई । अत्यधिक रोते रहने के कारण उसकी आंखें मुरझा गई थीं । चेहरे पर व्यथा की रेखाएं स्पष्ट दिख रही थीं। सम्राट् ने कहा - 'कोशा ! आसन पर बैठ जा । तेरे आकस्मिक आगमन से आश्चर्य हुआ है।' सुकेतु बार-बार कोशा की ओर देख रहा था।
शाने आसन पर बैठकर कहा- 'कृपावतार! मैं भिक्षा लेने आयी
हूं।'
'तुझे क्या चाहिए, कोशा ! तेरी इच्छा पूरी होगी। बोल....!' 'कृपावतार! मैं अभागिन हो गई हूं। मेरा सर्वस्व लुट चुका है।' 'गया क्या है ? तू इतना दुःख क्यों कर रही है ?' 'कुमार स्थूलभद्र मेरा त्यागकर चले गए ।' 'हां, वह तो मुनि बन गया ।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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