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करने वाले अनेक पुरुष पुनः घर लौटे हैं। आप शांति से उनकी प्रतीक्षा करें। आपकी आशा पूरी होगी।' चित्रा ने धैर्य बंधाते हुए कहा ।
'आशा.... आशा....' कोशा आंखें बन्द कर शय्या पर सो गई। दुःख, शोक, संताप, विरह और व्यथा का एक सप्ताह बीत गया । आर्य स्थूलभद्र का कोई संवाद नहीं मिला।
सारा भवन शोकमग्न था। किसी के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं थी । वह भवन श्मशानघाट-सा लग रहा था।
एक दिन श्रीयक ने आकर कोशा से कहा- 'भाभी ! आज भैया के समाचार प्राप्त हुए हैं।'
'यहां से प्रस्थान कर स्थूलभद्र विकट वन के अनगिन कष्टों को सहन कर महान आचार्य संभूतविजय के पास पहुंचे और विधिवत् उनका शिष्यत्व स्वीकार किया है ।'
'वे जहां भी हैं, वहां मुझे अविलम्ब ले जाओ.... मैं उन्हें किसी भी उपाय से यहां ले आऊंगी।'
'भाभी ! ऐसा प्रयत्न न मेरे लिए शोभनीय होगा और न आपके लिए । कष्टों से घबराकर वे स्वयं घर आ जाएं तो अलग बात है।'
'भैया ! मैं उन्हें भली-भांति जानती हूं। ऐसे वे लौटने वाले नहीं हैं।' 'भाभी! आप मगध की राजनर्तकी हैं । व्यथा और विरह से यदि आप अपने शरीर को कुम्हला देंगी तो सम्राट् को अत्यधिक दुःख होगा ।' 'सम्राट् के दुःख की मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है। हृदय धग्-धग् कर जल रहा है। उससे प्रज्वलित शरीर को राख होने से कैसे बचा सकती हूं ?'
'देवी! आप सोचें! आप सामान्य नारी नहीं हैं। आप राजलक्ष्मी हैं । आप कलालक्ष्मी हैं। कला के लिए विष-घूंट भी पीना पड़ सकता है।' 'विषपान कर क्या कोई जीवित रह सका है ?' 'आत्म-श्रद्धा विष को भी अमृत बना डालती है । ' थोड़े समय पश्चात् श्रीयक घर चला गया ।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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