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तो एक सामान्य बात है, किन्तु इस पद का त्याग करना कठिन कार्य है। मैंने यह कठिन कार्य कर अपने शाश्वत सुख को प्राप्त करने का मार्ग निर्णीत कर डाला है।'
'स्वामिन्....!' तीर से घायल हुई हिरणी की तरह रूपकोशा स्थूलभद्र के चरणों में धड़ाम से गिर पड़ी।
'देवी! मैंने सर्वत्याग का निर्णय कर लिया है।' 'सर्वत्याग?'
'हां, कोशा! आज तेरा स्वामी मुक्ति-मार्ग का पथिक बनेगा....जीवन को धन्य करने के लिए संसार को भूल जाएगा....संसार के क्षुद्र सुखों की ओर दृष्टिपात करने का त्याग करेगा....तेरा गौरव आज संसार का आभरण बनेगा।'
‘भद्र ! आप यह क्या कह रहे हैं ? क्या आप मुझे भी छोड़ देंगे? बाहर वर्षों तक अपने अन्त:करण में बसी हुई पत्नी को आप भूलना चाहते हैं?'
___ 'देवी! मैं पागल नहीं हूं। मैंने यह निर्णय विचारपूर्वक किया है, अस्थिरतावश नहीं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि कोशा कोई सामान्य स्त्री नहीं है। वह ऐसी निर्बल नहीं है कि पति के वियोग में पागल बन जाए। वह एक आदर्श नारी है। वह अपने पतिदेव के मंगल प्रयाण को सहर्ष वर्धापित करेगी।'
___ कोशा फफक-फफककर रोने लगी। उसके आंसू स्वामी के चरणकमल पखारने लगे।
भवन में से चित्रा, माधवी, कल्याणी, हंसनेत्रा, सोल्लक, सोमदत्त आदि हर्षोन्मत्त होकर उत्सव की सारी सामग्री लेकर आ रहे थे।
चित्रलेखा भी 'मंगलप्रमोद' का नृत्य करने के लिए पूर्णरूप से सजधजकर आ रही थी।
सबसे आगे चित्रा थी और सबसे पीछे चित्रलेखा थी। चित्रा के हाथ में आर्य स्थूलभद्र की प्रिय वीणा थी।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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