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स्थूलभद्र विचारों में मग्न था। कोशा का अश्रु-प्रवाह गंगा का अविरल प्रवाह बन रहा था।
अचानक कोशा के कानों पर 'घणण धड़ाम' की आवाज आयी। हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली आवाज आम्रवाटिका में चारों ओर फैल गई। उसे लगा मानो धरती कांप उठी हो। चित्रा के मुख से चीख निकली।
कोशा और स्थूलभद्र ने उस ओर देखा। उत्साह के वेग से तीव्र गति से आती हुई चित्रा के ठोकर लगी। वह भूमि पर गिर पड़ी। उसके हाथ से वीणा छूटी और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए। वीणा के तार टूट गए। वह वीणा चूर-चूर हो गई।
यह देख कोशा के प्राण कांप उठे।
आर्य स्थूलभद्र दो कदम पीछे हटा। उसने रूपकोशा को स्थिर दृष्टि से देखा। फिर उसने शरीर की शोभा बढ़ाने वाले सारे अलंकरण उतारकर नीचे फेंक दिए। कंठहार एक ओर रखा और उत्तरीय भी उतार दिया।
और आर्य स्थूलभद्र का कमरबंध भी टूट रहा था।
स्थूलभद्र ने रोती हुई कोशा से कहा- 'देवी! प्रस्थान का समय हो चुका है। मैं अब विदाई चाहता हूं। मैं आज सब कृत्यों के लिए क्षमा-याचना करता हूं। तू क्षमा अर्पित कर प्रस्थान के लिए पाथेय देना। मैं तुम सबको भूल जाऊं, किसी की कोई याद न रहे, यही मंगलकामना करता हूं।'
कोशा मात्र रोती रही। उसका रुदन और उसके आंसू उसकी वाणी को अवरुद्ध कर रहे थे।
___ आर्य स्थूलभद्र ने केश-लुंचन करना प्रारम्भ किया। सुन्दर केश हवा में उड़कर दूर-दूर चले गए। एक दिन जिन सुन्दर केशों में रूप और लावण्य की प्रतिमूर्ति कोशा की कोमल अंगुलियां अठखेलियां करती थीं, वे केश आज आम्रवाटिका की मिट्टी में समा रहे थे।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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