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उसके मन में उत्साह था कि वह पहली बार अपनी बहन और जीजाजी के समक्ष अपने जीवन का अभिनन्दन करने वाला नृत्य करेगी....दोनों प्रसन्न होंगे....उनके आशीर्वाद से साधना सफल होगी।
कुछेक परिचारिकाएं उपवन में फूल तोड़ रही थीं और कोशा अपने प्रांगण में झूला झूल रही थी।
उसके प्राणों में स्वामी के पद-गौरव का आनन्द हिलोरे खा रहा था, विजय के संगीत की मस्ती यौवन में उभार ला रही थी....और प्रेम की रश्मियां बाहर छितर रही थीं।
उपवन से दौड़ती-दौड़ती माधवी आयी। उसे देखते ही कोशा ने झूला झूलते हुए पूछा- 'माधवी! हर्षविभोर होकर कहीं गिर मत जाना। श्रृंगार भवन में देख तो सही कि चित्रलेखा तैयार हुई या नहीं? मगध के महामन्त्री आर्य स्थूलभद्र अभी राजसभा के भवन में आएंगे।'
'देवी.....' माधवी के नयन विस्फारित ही रह गए।
'अरे, तू शिकारी से भयभीत हुई हिरनी की तरह क्यों दिख रही है?'
'देवी....!' 'हैं क्या? क्या मेरी आज्ञा नहीं सुनी? तू पागल क्यों हो रही है ?' 'देवी! अपने आम्रवन में एक वृक्ष के नीचे....' 'तेरा कोई प्रियतम आया है!' कोशा ने हंसकर कहा। 'देवी! वहां स्थूलभद्र बहुत समय से विश्राम कर रहे हैं।' 'आम्रवृक्ष के नीचे?' झूला रुक गया। प्रसन्नता मानो काफूर हो
गई।
_ 'हां, देवी! उनका चेहरा अत्यन्त गम्भीर है। मैंने पांच-सात बार उनसे प्रश्न किया, परन्तु उन्होंने....'
'क्या है, माधवी ? क्या है ? मेरे स्वामी को क्या हो गया है ?' कहकर कोशा झूले से नीचे उतरी।
झूले से बंधी सोने की शृंखलाएं हंस पड़ी।
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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