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________________ 'परन्तु महाराज!' पुरोहित उठे, उससे पूर्व स्थूलभद्र बोल उठा। 'क्या कहना है?' 'आपने मेरा निर्णय तो सुना ही नहीं।' 'वत्स! तेरे नयन तेरे अन्तर भाव को प्रकट कर रहे हैं। मैं अभी तुझे महामन्त्री के पद से विभूषित करना चाहता हूँ।' 'आपकी कृपादृष्टि अपार है किन्तु....' 'किन्तु क्या?' 'इस महान पद के योग्य श्रीयक है, मैं नहीं। मैं तो इन सभी बंधनों की माया से मुक्त होना चाहता हूं।' स्थूलभद्र ने गंभीर होकर कहा। यह सुनते ही राजसभा में सन्नाटा छा गया। श्रीयक का हृदय धड़कने लगा। मगधेश्वर ने पूछा- 'बंधन की माया कहां थी, भद्र ?' 'महाराज! संसार का प्रत्येक सुख बंधन की माया ही है। जैसेजैसे मानव इस माया में गहरा फंसता जाता है, वह शाश्वत सुखों से उतना ही दूर चला जाता है।' _ 'स्थूलभद्र ! जिससे मगध का कल्याण होता है, क्या वह बन्धन की माया है?' 'हां, महाराज....' 'तो तू कोशा के बन्धन से भी मुक्त होना चाहता है? या उसे तू बन्धन मानता ही नहीं ?' सम्राट् ने व्यंग्य में कहा। 'महाराज, यह भी बन्धन ही है। इससे भी मैं मुक्त होना चाहता हूं। आप मुझे आशीर्वाद दें....मैं अपनी साधना में सफल होऊं।' स्थूलभद्र का यह उत्तर सुनकर सारी सभा स्तब्ध रह गई। स्थूलभद्र ने सभी सभासदों को प्रणाम किया। उसने सम्राट् से कहा'कृपावतार! अब मैं विदाई चाहता हूं।' सम्राट् ने फिर एक बार प्रयत्न करते हुए कहा- 'वत्स ! अभी तेरा चित्त स्थिर न हो तो मैं दो दिन और प्रतीक्षा कर सकता हूं।' २१३ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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