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________________ ३८. बंधन की माया स्थूलभद्र ने राजसभा में प्रवेश किया। सभी सभासदों ने प्रसन्नता व्यक्त की। स्थूलभद्र ने सबसे पहले सम्राट् को नमस्कार किया और फिर सभी सभासदों को मस्तक झुकाया। मगधेश्वर ने स्थूलभद्र को अपने पास बुलाकर मृदुस्वर में कहा'वत्स, इधर आ....कुशल तो है न?' 'हां, कृपासिन्धु....!' स्थूलभद्र ने निकट आकर कहा। सम्राट् ने उसी भावधारा में कहा- 'सबसे पहले मैं भयंकर अपराध के लिए क्षमायाचना करता हूं। मेरे सन्देह के कारण ही मगध के एक महान व्यक्तित्व का इसी स्थल पर खून किया गया था। अपने अज्ञान के कारण मैंने अपनी अमूल्य निधि को खो डाला। इस दुर्घटना के पश्चात् मेरी वेदना और दुःख का कोई पार नहीं रहा है।' स्थूलभद्र बोला- 'महाराज! उसमें आपका कोई दोष नहीं है। आप तो निमित्त मात्र बने हैं। कर्मों की यह लीला है। और राज्यकार्यों में ऐसी घटनाएं यदा-कदा घटती रहती हैं।' मगधेश्वर बोले- 'स्थूलभद्र ! यह तेरी उदारता का परिचायक है। तू धन्य है। तू भी अपने महान पिता की तरह शांत और बुद्धिमान है। मैंने श्रीयक से महामन्त्री का पद ग्रहण करने के लिए कहा था। उसने अपनी कुल-परम्परा के आदर्श के अनुसार तुझे ही इस पद योग्य बतलाया है। तू शास्त्रज्ञ है और महामन्त्री का ज्येष्ठ पुत्र है। इसलिए पिता का गौरव तेरे हाथों में सुरक्षित है। तेरे से ही वह पद शोभित होगा।' ___ 'महाराज! आप जो कह रहे हैं, वह उचित है। महात्मा कल्पक ने इस राज्य की स्थापना की थी और उन्हीं के वंशजों ने इसकी सुरक्षा और २११ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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