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प्रियतमा भी जलकर राख हो जाएगी और तू भी राख हो जाएगा। तो फिर बारह वर्षों की साधना किसलिए? मुक्त प्राण इस कारावास में क्यों बंदी पड़ा है ? नृत्य और संगीत क्या जीवन की अंतिम सिद्धि है ? रूप और प्रेम क्या जीवन की उपलब्धि है ? अरे! दूर हटो....दूर हटो....चिन्तन के विकल्पों! दूर हटो...दूर हटो!
स्थूलभद्र विचारों के तूफान में फंस गया।
वह उठा। पुन: वातायन के पास गया। रात्रि परम शांत थी, नीरव थी। स्थूलभद्र इस शांत और नीरव वातावरण में खो गया। प्रकृति की शांति ही वास्तविक शांति है। यही सच्चा सुख है ? हां....नहीं-नहीं, मृत्यु शांति है....जन्म अशांति है। जन्म अनिवार्य है तो अशांति भी अनिवार्य है।
पिताजी की इच्छा थी-स्थूलभद्र महान बने। क्या पिताजी ने जन्म जीत लिया? नहीं....मात्र उन्होंने मृत्यु को जीता है। जन्म को जीतना शेष है। जन्म को जीतने पर ही अनन्त सुख प्राप्त हो सकते हैं। और जन्म को जीतने के लिए उसकी प्राप्ति के सारे घटकों, कारणों को दूर करना होगा....कोशा को दूर करना होगा....कोशा के रूप को दूर करना होगा....जीवन के संगीत को दूर करना होगा। ओह! तब तो सर्वत्याग करना होगा। महान बनने का एकमात्र मार्ग है सर्वत्याग करना। जिस मार्ग में संसार नहीं, संसार की इच्छा नहीं....जहां केवल है ज्ञान, दर्शन और चारित्र। केवल आत्म-दर्शन, आत्म-ज्ञान और आत्म-चारित्र।
प्रभात की झालर बज उठी। स्थूलभद्र ने पत्नी की ओर देखा। आशा और तृप्ति की प्रतिमा के समान कोशा प्रभात के मंद-मंद वायु की चादर ओढ़कर सो रही थी।
स्थूलभद्र मन ही मन बोल उठा-देवी! हमने अन्याय किया है। बारह वर्षों से हम केवल सो रहे थे....जागृति का स्वप्न भी नहीं आया। हम निश्चित ही अभागे हैं।
पक्षियों की चहचहाहट सुनाई देने लगी। रात बीत गई....किसके जीवन की?
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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