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प्रभात के मधुर समीर और उषा के स्निग्ध स्पर्श से कोशा जाग गई। उसने पास में देखा - स्वामी वहां नहीं थे। आस-पास देखा। आर्यपुत्र वातायन के पास एक आसन पर बैठे कुछ चिन्तन कर रहे थे। कोशा तत्काल शय्या के नीचे उतरी और प्रियतम के पास आकर बोली- 'प्राणनाथ ! आप कब जागे थे ?'
३७. रथ चला गया
'देवी....!'
'ओह ! आपकी आवाज कुछ भारी है। क्या नींद नहीं आयी ?' 'नींद को आने ही नहीं दिया।' स्थूलभद्र ने कहा ।
'क्यों?'
'जागृत रहने के लिए।'
यह उत्तर सुनकर कोशा को आश्चर्य हुआ। वह स्थूलभद्र के चरणों के पास बैठ गई ।
स्थूलभद्र बोला- 'देवी! जीवन में कई बार जागना जरूरी होता है। इच्छा होने पर भी मनुष्य महामूर्च्छा के कारण जाग नहीं सकता। कल रात मैं समझ सका कि सोना सरल है, जागना कठिन है।'
कोशा कुछ भी नहीं समझ सकी। वह बोली, 'आपके कथन का अर्थ क्या है ?'
'देवी! बारह वर्ष की घोर निद्रा में मैंने अपने आपको खो डाला। आज अचानक जागृति हुई है...कोशा, मेरा अन्त:करण आज कुछ खोज रहा है।' 'आपको आज क्या हो गया ? कौन से बारह वर्ष ? कैसा नींद ? अचानक जागृति कैसी ? अन्त:करण क्या खोज रहा है ? यह सब आप क्या कह रहे हैं ?' कोशा के सुन्दर वदन पर आश्चर्य की रेखाएं उभर चुकी थीं।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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