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स्थूलभद्र ने आकाश में टिमटिमाते तारों को देखा। वे हंस रहे थे। स्थूलभद्र ने सोचा-ये तारे किस पर हंस रहे हैं ? क्यों हंस रहे हैं ? संसार के संतप्त मानव का मजाक तो नहीं कर रहे हैं?
तारों के अनन्त हास्य के बीच स्थूलभद्र को एक ज्वाला दिखाई दी-ज्वाला असामान्य थी-महाज्वाला थी। उस ज्वाला में एक आकृति अस्पष्ट रूप से उभर रही थी। उसने सोचा-अरे! यह तो पिताजी की आकृति है ! ओह! पुत्र को महान देखने की आशा के साथ विदा हो जाने वाले पिता क्या अभी भी महाज्वाला में प्रज्वलित हो रहे हैं?
स्थूलभद्र ने एकदम आंखें बन्द कर लीं। उसने फिर कोशा के शरीर की ओर दृष्टि डाली। दीपमालिका के मन्द-मन्द प्रकाश में उसका रूप निखरकर नयनप्रिय लग रहा था। स्थूलभद्र एक आसन पर बैठे। एकान्त जीवन, पुरुषार्थ की आंखों पर उठकर महान बनने की कामना...संसार से विरक्त होकर मुक्ति मार्ग के पथिक बनने की कल्पना....पुत्र को गृहस्थ बनाने के लिए पिता द्वारा दिये गए अनन्त प्रयत्न...।'
और रूपकोशा का प्रथम दर्शन ! संगीत और कला का प्रथम मिलन! प्राण और हृदय की प्रथम तरंग! यौवन और प्रणय का प्रथम उल्लास! नरनारी का प्रथम मिलन!
ओह ! बारह वर्ष बीत गए। वीणा के कोमल स्वरों के साथ बारह वर्ष बीत गए। नृत्य की ताल के साथ-साथ बारह वर्ष की रात्रियां बीत गईं। संगीत और कला की धुन में बारह बसंत चले गए। रूप और यौवन की मादकता में बारह वर्ष व्यर्थ चले गए। विलास और रंग-राग के झूले में झूलते एक युग बीत गया।
स्थूलभद्र ने पुन: कोशा की देहयष्टि पर दृष्टि उाली। उसका प्राण चीख उठा- 'अरे, बारह-बारह वर्षों तक तू इस सुकुमार नारी का रूप चूसता रहा है, फिर भी तृप्ति नहीं हुई....सुख की कल्पना आज भी कल्पनामात्र बनी हुई है। जिस रूप और प्रेम के पीछे तू पागल बना है, वह स्थायी नहीं है। जिस चिता में जलकर पिताजी राख हो गए, उसी चिता में
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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