________________
सुनन्दा के महाप्रासाद की आम्रवाटिका में उषा की किरणें नहीं फैल रही थीं, किन्तु पक्षियों का कलरव उषा के आगमन की सूचना दे रहा था।
दिशाएं लाल हुईं।
सुनन्दा के महाप्रासाद के रक्षकों ने झालर बजाई। दास-दासी उठे। प्रांगण में मृदु-मधुर कलरव होने लगा। दो दासियों ने वीणा और मृदंग पर उषा के आगमन की रागिनी प्रारम्भ की। प्रात: वायु के मंद-मंद प्रवाह के साथ रागिनी के मधुर स्वर प्रासाद में गूंजने लगे।
कोशा की मुख्य परिचारिका चित्रा वस्त्र परिवर्तन कर कोशा के शयनागार की ओर गई। कोशा का शयनगृह ! पूर्व भारत की रूपकलिका कोशा का रजनीगृह । चक्रवर्ती के शयनगृह को भी लज्जित करने वाली समृद्धि से परिपूर्ण था कोशा का शयनगृह ।
उस शयनगृह के दक्षिण वातायन में एक पलंग बिछा हुआ था। वह रत्न-जटित, स्वर्णमंडित और अपूर्व कारीगरी से युक्त था। उसकी मुलायम शय्या पर पूर्णिमा की ज्योत्स्ना के समान धवल एक चादर बिछी हुई थी। चादर के चारों अंचल मुक्ताओं से मंडित थे। उस शुभ शय्या पर तुषार के पुंज के समान सुकोमल कोशा सो रही थी। दक्षिण का मृदु-मंद पवन उसके सुकुमार शरीर का स्पर्श कर रहा था। वह एक नीलवर्ण का सूक्ष्म उपवस्त्र ओढ़े हुए थी।
चित्रा उस शयनगृह में आयी। पलभर वह निद्रित कोशा को देखती रही। तत्पश्चात् मंजुल स्वर में बोली- 'देवी!' किन्तु कोशा किसी अज्ञात स्वप्नलोक में विहरण कर रही थी। उस स्वप्नलोक में कोई अदृष्ट नवयुवक वीणा बजा रहा था। गंगा की तरंगों के समान स्वप्नसंगीत के स्वर कोशा की चेतना पर एक नवयुवक की प्रतिमा का निर्माण कर रहे थे। प्रतिमा का स्वरूप पूर्ण होने से पूर्व ही उसके कानों में शब्द आ पड़े- 'देवी!'
स्वप्न-तरंगों में थिरकता कोशा का हृदय बोल उठा- 'यह शब्द उस नवयुवक का तो नहीं है?' आर्य स्थूलभद्र और कोशा
१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org