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________________ कामशास्त्र, संगीतशास्त्र और नृत्यकला में पूर्ण निपुणता प्राप्त कर वैशाली के लिच्छवियों के रक्त को संजोने वाली राजनर्तकी सुनन्दा समूचे भारतवर्ष की ललित कलाओं की प्रतीक बनकर शोभित हो रही थी। सिद्ध नागार्जुन की रसशाला भारतवर्ष में वैज्ञानिक क्रान्ति की ज्योति को प्रज्वलित रख रही थी। सिद्ध सम्प्रदाय के मुख्य आचार्य सिद्धरसेश्वर भैरवनाथ अकल्पित वैज्ञानिक तथ्य विश्व को समर्पित कर रहे थे। पाटलीपुत्र नगर में सैकड़ों जिनालय और आरामागार थे। श्री जिनधर्म और बौद्ध-धर्म-इन दोनों धर्मों का वहां वर्चस्व था और मगधेश्वर घननन्द की राजनर्तकी सुनन्दा की षोडशवर्षीया कन्या रूपकोशा' संसार में सौन्दर्य का राजतिलक प्राप्त करने के लिए मुचकुन्द पुष्प के समान खिल रही थी। संगीत, काव्य, राजनीति, नृत्य, शिल्प, चित्रकला और काम-विज्ञान जैसे रसमधुर फूलों के बीच देवी रूपकोशा का सिंहासन निर्मित था। रूपकलिका कोशा के उद्गमकाल में भी पाटलीपुत्र का वैभव स्वर्ग को लज्जित करने वाला था। प्रकृति की पूर्ण कृपा ने पाटलीपुत्र को ऐसी अनन्त शक्तियों से परिपूर्ण बना रखा था। प्रजा का रसभरा उन्नत जीवन, आदर्श राजतंत्र और ज्ञानगंगा का विपुल प्रवाह-पाटलीपुत्र सभी दृष्टियों से परिपूर्ण था। पाटलीपुत्र में वीरता थी, उदारता थी, कला थी, रूप था, जीवन था, जीवन का बल था। पाटलीपुत्र में सब कुछ था। वहां दो थे-सुख और समृद्धि । वहां दो नहीं थे-दु:ख और अभाव। सुख और समृद्धि की तरंगों पर थिरकता हुआ पाटलीपुत्र नगर एक जीवन्त काव्य बन गया था। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। चन्द्रमा को अस्त हुए समय हो गया था। किन्तु उस समय अंधकार नहीं था। गंगा के तट पर छोटी-मोटी नौकाओं को गतिमान करने के लिए लोग तत्पर थे। प्रात:स्नान के लिए अभी लोक-समूह नहीं आया था। पाटलीपुत्र के राजपथ पर सामान्य पगध्वनि सुनाई दे रही थी। आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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