________________
२. कला की प्रतिमा
इतिहास का कलेवर केवल रक्तरंजित ही नहीं होता, उसके हृदय में अनन्त वस्तुएं समाई रहती हैं। प्रेम और त्याग, हिंसा और अहिंसा, वीरता और कायरता, उदारता औ कृपणता, लूट-खसोट और दिलेरी, स्वार्पण और स्वार्थांधता आदि तत्त्वों से इतिहास के पृष्ठ अंकित हैं।
इतिहास केवल पीड़ाओं और वेदनाओं का ही कलेवर नहीं है, उसमें प्राणों के गीतों का माधुर्य भी है।
पाटलीपुत्र नगर भी इतिहास का बहुरंगी पृष्ठथा। वह अनुपम नगर गंगा के किनारे विस्तृत था। वह नंदवंश का कीर्तिस्थल स्वर्ग के समान शोभित था।
उस समय पाटलीपुत्र के राज्यसिंहासन पर मगध सम्राट् महाराज धननंद विराज रहे थे। उनके वैभव और शौर्य से भारत का कण-कण आश्चर्यचकित था। पूर्व भारत की राजधानी तथा कला की परम नगरी पाटलीपुत्र देश-विदेश में प्रख्यात थी।
उस समय नंदवंश के महामंत्री कल्पक के वंशधर महामात्य शकडाल अपने जीवन-तेज से पाटलीपुत्र को प्रकाशित कर रहे थे। शकडाल के प्रिय शिष्य चणकमुनि के पुत्र विष्णुदत्त (चाणक्य) अपने ज्ञान की गुरुता से भारत की संस्कृति का सृजन कर रहे थे। महाकवि वररुचि की काव्यधारा समूचे देश को आप्लावित कर रही थी।
और....
महासेनापति सौरदेव, रथपति सुकेतु, महादण्डनायक सुबाहु, महाप्रतिहार विमलसेन, दण्डपाशिक चन्द्रनायुध, नौकाध्यक्ष विजयप्रभ, भांडागारिक श्रेष्ठी सोमचन्द्र, संगीत-गुरु आचार्य कुमारदेव आदि-आदि भव्य शक्तियों के कारण पाटलीपुत्र अजेय और आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था। आर्य स्थूलभद्र और कोशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org