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३४. भव्य बलिदान
जिस समय महामंत्री ने अपने पुत्र के साथ महान निर्णय किया था, उसी समय संसार की परम सुन्दरी रूपकोशा अपने प्रियतम स्थूलभद्र के शृंगारभवन में बैठकर जल-विहार की योजना बना रही थी।
स्थूलभद्र का आग्रह था कि जलक्रीड़ा के लिए छह कोस की दूरी पर तालाब में जाना चाहिए।
कोशा कहती थी कि भवन में जो यांत्रिक जलाशय है, उसी में जलक्रीड़ा की जाए।
संसार में बहुत बार पुरुष जीतता है और बहुत बार स्त्री जीतती है।
स्थूलभद्र ने कहा-'प्रिये! भवन के यांत्रिक जलाशय में हम अनेक बार जलक्रीड़ा कर चुके हैं। आज तो नलिनीद्रह में आनन्द लेना है।'
कोशा बोली- 'प्राणनाथ! यहां जैसा एकान्त वहां नहीं मिलेगा। वहां लोगों का आवागमन रहता है। एकांत के बिना वह आनन्द नहीं आ सकता। हमारा जलाशय यांत्रिक है, विशाल है और जल भी स्वच्छ और सुरक्षित है।'
बात का अन्त कोशा की विजय से हुआ। स्थूलभद्र बोला- 'जो तुम्हारी इच्छा है, वही मेरी इच्छा है।' ।
'स्वामिन् ! ऐसा न कहें....' तिरछे नयनों से स्वामी की ओर देखती हुई कोशा बोली- 'मेरी प्रत्येक इच्छा आपकी इच्छा कहां बनती है?'
स्थूलभद्र ने हंसते हुए कहा- 'प्रियतमा की मैं प्रत्येक इच्छा को स्वीकारता रहा हूं....तुम्हारी कौन-सी इच्छा अपूर्ण है ?'
कोशा के नयन लज्जा से भूमि में गड़ गए। वह लज्जाभरी दृष्टि से स्वामी के उन्मुख होकर बोली- 'मैंने कुछ समय पूर्व अपनी इच्छा आपके चरणों में रखी थी...पर आपने उसको कब पूरा किया?'
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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