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'तो पिताश्री! मेरे से यह अधम कार्य नहीं होगा।'
'श्रीयक ! क्या यह शकडाल का पुत्र बोल रहा है ? पवित्र कार्य को तू अधम मानता है ? पिता की अंतिम इच्छा को पूरी करने की सामर्थ्य भी तुझ में नहीं रहा?'
'पिताश्री! पितृहत्या का कलंक....
'पिता की इच्छा पूरी करने की शक्ति तेरे में नहीं रही? श्रीयक! तुझे ज्ञात है तू मगध का विश्वासपात्र अंगरक्षक है। मगधेश्वर और मगध के महामंत्री की आज्ञा का पालन करना तेरा धर्म है।'
श्रीयक मौन खड़ा रहा।
शकडाल ने कुछ कठोर होकर कहा- 'श्रीयक! राजसभा में जा। मगध का महमंत्री तुझे आज्ञा देता है कि तू अपने पिता का शिरच्छेद करना।'
'बापू! बापू! आप मेरी अन्तर्व्यथा को क्यों नहीं समझ रहे हैं? पितृहत्या के पाप से मैं कब उऋण हो पाऊंगा? आप मुझे क्षमा करें'
'वत्स! मैं समझता हूं। किन्तु उस व्यथा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है मेरी प्रतिष्ठा और पवित्रता का संरक्षण । आज शकडाल मगध को जीवित रखने के लिए हर्ष से मौत को स्वीकार रहा है। तुझे पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा। मैं जब राजसभा में आऊंगा तब मैं अपने मुंह में भयंकर तालपुट विष लेकर आऊंगा। तुझे तो केवल अपने पिता की इच्छा पूरी करनी है। यह इच्छा कोई सामान्य इच्छा नहीं है। यह तो कल्पक वंश की अमर ज्योति है। वत्स! जब मैं सम्राट् के चरणों में नमूंगा, तब विष के प्रभाव से मेरे प्राणपखेरू उड़ गये होंगे....तूतो केवल मेरी मृत्यु का निमित्त बनेगा...उस समय मैं रागद्वेष से मुक्त होकर नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते-करते प्राण-त्याग करूंगा। तुझे कोई पाप नहीं लगेगा।
'वत्स! समय थोड़ा है। जा, कायर मत बन । यदि तू कायरता लाएगा तो मेरी मृत्यु लज्जित होगी। मेरी कीर्ति और पवित्रता लोगों में परिहास का विषय बनेगी। क्या उत्तर है तेरा ?'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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