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चाहे, वह व्यक्ति कोई भी हो, कितना भी महान हो, वह वध के योग्य है। मेरे वध के पश्चात् जब वातावरण शांत हो जाए तो एक विश्वस्त दूत को भेजकर तक्षशिला में रहने वाले मेरे प्रिय शिष्य विष्णु को सारी बात बतानी है। और मेरा आशीर्वाद भेजते हुए कहना है कि श्रीयक सदा विष्णु का छोटा भाई ही रहेगा-ऐसी श्रद्धा और विश्वास के साथ वृद्ध शकडाल ने चिर विदाई ली है।
श्रीयक रोते हुए पिताश्री के चरणों में पड़कर बोला-'क्षमा करें...आगे कुछ न कहें....मेरा हृदय फट जाएगा....मैं इसी क्षण मृत्यु को वरण कर लूंगा। मुझे क्षमा करें।'
'वत्स! कायर मत बन । मेरी प्रतिष्ठा और कर्त्तव्य की रक्षा का दूसरा कोई मार्ग नहीं है।'
'पिताश्री ! एक मार्ग है। एक उपाय है।'
'मैं ऐसा कोई उपाय नहीं चाहता, जो कुल-गौरव की प्रतिष्ठा के विपरीत हो।'
'नहीं, बापू! कुल-गौरव की प्रतिष्ठा और अधिक बढ़े, ऐसा उपाय
'बोल....'
'आप राजसभा में आएं...एक स्वर्ण-थाल में मेरा मस्तक रखकर सम्राट् के चरणों में उसे उपहृत करें। सम्राट् से कहें-अब मगधपति निर्भय रहें। मगध के सिंहासन की भूख कल्पक वंश के व्यक्तियों ने कभी नहीं रखी।' श्रीयक ने गम्भीर स्वर से कहा।
पिता ने पुत्र को छाती से लगाकर कहा- 'वत्स ! तेरी पितृभक्ति अनूठी है। किन्तु तू अभी तक पिता नहीं बना है। माता-पिता को सन्तान जितनी प्यारी होती है, संसार में दूसरी वस्तु कोई प्यारी नहीं होती। मैं पुत्र के शोणित द्वारा अपनी प्रतिष्ठा सुरक्षित रखू, ऐसा अधम पिता नहीं हूं। तुझे मेरी इच्छा पूरी करनी ही होगी। इसमें और कुछ विचार करने जैसा नहीं है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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