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श्रीयक पिताश्री के वदन को एकटक देख रहा था। वह आज के इस आकस्मिक वार्तालाप का आशय नहीं समझ पा रहा था। दो-चार क्षण मौन रहने के पश्चात् शकडाल ने मुसकराते हुए कहा- 'बेटा! आज तक शकडाल ने सबकी इच्छा पूरी की है। किन्तु दु:ख इस बात का है कि आज तक किसी ने शकडाल की एक भी इच्छा पूरी नहीं की। बोल, क्या तू अपने पिता की इच्छा पूरी करेगा?'
'बापू! मेरी परीक्षा कर रहे हैं क्या! आपकी प्रत्येक आज्ञा को मैं सिर पर चढ़ाऊंगा।' श्रीयक पिताजी के तेजस्वी नयनों को देखते हुए बोला।
_ 'वत्स! मैं आज्ञा तो सदा से करता रहा हूं। अब आज्ञा देना नहीं चाहता। केवल इच्छा पूरी हो, यह चाहता हूं।'
'आपकी जो इच्छा हो, वह बताएं। मैं उसे पूरी करूंगा।' 'मेरी इच्छा बहुत भयंकर है।'
श्रीयक कुछ भी नहीं समझ सका । वह प्रश्नभरी दृष्टि से पिताश्री को देखता रहा।
शकडाल ने पुत्र के मस्तक पर हाथ रखकर कहा- 'यदि मैं तेरे सिर की मांग करूं तो.....?'
'इसी क्षण आनन्दपूर्वक उसको श्रीचरणों में रख दूंगा।' 'किन्तु तेरा विवाह होने वाला है।'
'विवाह से भी कर्तव्य महान होता है, पिताजी ! कर्त्तव्य के समक्ष विवाह तुच्छ वस्तु है।' श्रीयक ने दृढ़ स्वरों में कहा।
'यदि मेरी इच्छा इससे भी भयानक हो तो....?'
'वह भी मैं पूरी करने की कोशिश करूंगा। यदि आप मेरे इस शरीर के टुकड़े-टुकड़े की इच्छा करेंगे, तो तनिक भी कंपित हुए बिना अपने ही हाथों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर आपको अर्पित कर दूंगा।' श्रीयक ने प्रसन्नता से कहा।
'तू धन्य है, श्रीयक! किन्तु मेरी अन्तआत्मा कहती है कि तू मेरी इच्छा पूरी नहीं कर सकेगा'- कहकर मंत्रीश्वर ने एक दृष्टि से पुत्र की ओर
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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