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यौवन के प्रथम प्रहर में उछलते हुए हृदय से युक्त श्रीयक! आशाओं की जीवन्त कविता के समान प्यारा पुत्र श्रीयक।
महात्मा कल्पक के वंश का अन्तिम चिह्न ! क्या इस निर्दोष युवक के रक्त से मगध का साम्राज्य निरापद होगा? नहीं....नहीं....नहीं! मगध का सिंहासन कलंकित होगा। श्रीयक ने पूछा- 'क्या आज्ञा है, पिताश्री?' 'श्रीयक! स्वस्थ तो हो?' 'हां पिताजी!'
'प्रथम खण्ड का द्वार बन्द कर दे। सभी परिचारिकों और रक्षकों को नीचे जाने को कह दें।' महामन्त्री ने आज्ञा दी।
श्रीयक कुछ भी नहीं समझ सका। उसने सोचा कि पिताजी राज्य की कुछ गुप्त बातें कहेंगे।
उसने द्वार बन्द किया। सभी परिचारिकाओं को वहां से नीचे जाने का आदेश दिया।
शकडाल ने कहा- 'बेटा, मेरे पास बैठ जा।' श्रीयक पिता के आसन पर बैठा।
शकडाल ने पुत्र के कन्धे पर हाथ रखकर कहा- 'एक बात बता देता हूं कि तेरी सातों बहनें दीक्षा लेंगी। मैंने उन्हें अपनी अनुमति दे दी है। तुझे अब केवल इतना ही करना है कि शकडाल की मान-प्रतिष्ठा के अनुरूप दीक्षा महोत्सव समायोजित कर उन-उन सातों बहिनों को ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के शासन को सौंप देना है।'
'आपकी आज्ञा के अनुसार यह कार्य सम्पन्न होगा।'
'देख, मैं बूढ़ा हो गया हूं। यदि दीक्षा से पूर्व ही मेरी मृत्यु हो जाए, मैं न रहूं तो तुझे क्या करना है, इसी आशय से मैंने यह बात कही है।'
'बापू!' श्रीयक चमक उठा।
‘पागल कहीं का! क्या इस नश्वर संसार में कोई अमर रहा है ? अब मैं एक महत्त्वपूर्ण बात तुझे कहना चाहता हूं।' कहकर शकडाल ने वातायन की ओर देखा।
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आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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