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________________ 'तुम सब यौवन के प्रांगण में पहुंच चुकी हो। पग-पग पर आकर्षण और विडम्बनाएं फैली हुई हैं!' शकडाल ने कहा। __'आकर्षणों और विडम्बनाओं को तोड़े बिना मुक्ति कैसे मिल सकती है ? आप ही तो कह रहे थे कि मुक्ति-मार्ग के प्रवासी साधक यदि अडिग होते हैं तो त्याग का मार्ग सहज बन जाता है।' भूतदिन्ना ने कहा। 'ऐसी अडिगता तुम रख सकोगी?' 'हां, प्राण देकर भी उस पर अडिग रहने का साहस है, पिताजी!' सबसे छोटी बेटी रेणु ने कहा। 'साधुवाद! संयम मार्ग पर अग्रसर होने की मेरी अनुमति है। इससे तुम्हारी प्रसन्नता बढ़ेगी?' 'हां', सातों बहिनों ने कहा। 'तुम्हारी सबकी इच्छा परिपूर्ण हो, यह मेरी मंगल कामना है। अब तुम सब भगवान महावीर की उपासना करो।' 'बस पिताजी ! आज आपने हमें बहुत दे डाला। आप धन्य हैं।' सातो बहिनें पिता के चरणों में नतमस्तक होकर अपने-अपने आवास की ओर चली गईं। पिता ने प्रत्येक कन्या के मस्तक पर हाथ फेरा, आशीर्वाद दिया। शकडाल संसार की अनित्यता और असारता का चिन्तन करने लगा। उसे यह अस्पष्ट आभासित था कि संसार प्रपंच है, यहां सार कुछ भी नहीं है। उसने अपनी पुत्रियों के साहस का मन-ही-मन अभिनन्दन किया और संयम-मार्ग पर प्रस्थित होने की स्वयं की असमर्थता पर पश्चात्ताप करने लगा। ___ महामात्य शकडाल मुक्त वातायन में खड़े-खड़े अनन्त आकाश को निहार रहे थे। उसी समय श्रीयक ने खण्ड में प्रवेश कर पिता को प्रणाम किया। मंत्रीश्वर ने पुत्र के सुन्दर और तेजस्वी वदन की ओर देखा। सुकुमार युवक! आर्य स्थूलभद्र और कोशा १८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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