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________________ विधि की लीला! कन्याएं खण्ड में आयीं। पिता को नमस्कार कर वे एक ओर बैठ गईं। पिता ने करुणा-भरी नजरों से पुत्रियों को एकटक देखा। उसके मन में प्रश्न उभरा-क्या ये निर्दोष कन्याएं मगधेश्वर की तलवार का भोग बनेंगी? नहीं....नहीं....नहीं....! भाग्य को भी अपना मार्ग बदलना पड़ेगा। यदि यह नियति होगी तो पुरुषार्थ उसे बदल डालेगा। 'पुत्रियों ! मैंने तुम्हें यहां क्यों बुलाया है, जानती हो?' पुत्रियों ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे पिता की ओर निहारती रहीं। शकडाल ने कहा- 'आज मेरा चित्त बहुत प्रसन्न है। तुम्हारी जो इच्छा हो, मैं उसे पूरी करने के लिए तैयार हूं।' यक्षा बोली- 'पिताजी! आप तो हम पर सदा प्रसन्न ही रहते हैं। आपका वात्सल्य हमारे जीवन का प्राण है।' 'बेटी, अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। बुढ़ापा किसी को नहीं छोड़ता। कुछ ही समय का मैं मेहमान हूं। मैं तुम्हारी इच्छाओं को पूरी करने में आज भी समर्थ हूं। इस समर्थता का मैं उपयोग करना चाहता हूं। बोलो, तुम सब क्या चाहती हो?' 'पिताजी! आप जानते ही हैं कि हमारी इच्छा सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर श्रीवीरप्रभु के मार्ग पर अग्रसर होना है। आप हमें आज्ञा दें। हम प्रव्रजित होकर आत्म-कल्याण करें, बन्धनों से मुक्त हो जाएं।' 'क्या तुम सातो बहिनों की यह इच्छा है, या एक-दो की?' सातों बहिनों ने एक-स्वर में कहा- 'हम सब तैयार हैं।' 'त्यागमार्ग की बाधाओं और भय स्थानों का चिन्तन किया है ? ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का संयम-मार्ग सरल नहीं है। तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना कभी सम्भव हो सकता है, पर.... बीच में ही रेणा बोली- 'शकडाल की पुत्रियों के लिए भगवान का मोक्ष-मार्ग कठिन नहीं है।' १८५ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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