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पाटलीपुत्र की रौनक वही थी।
सम्राट् तीन महीनों से साकेत में थे। राज्य का सारा दायित्व महामंत्री शकडाल और महासेनापति सौरदेव पर था ।
सुकेतु और महामंत्री का कनिष्ठ पुत्र श्रीयक महाराज के साथ गए थे । वे लौटने ही वाले थे ।
वररुचि एक छोटे गांव में चला गया था। वह वैर की ज्वाला में झुलस रहा था। महामंत्री शकडाल को पराजित करने की तीव्र इच्छा उसमें थी।
चित्रलेखा यौवन की दहलीज पर पैर रख रही थी। उसका शरीर दिन-प्रतिदिन गौर होता जा रहा था। लोग उसको देखकर कहते - जब यह पूर्ण यौवन में प्रवेश करेगी तब कोशा की पंक्ति में ही आएगी।
भवन के सभी लोग उसे उपकोशा के नाम से पुकारते थे । भवन में आकर कोशा ने चित्रलेखा को छाती से लगा लिया। स्थूलभद्र अपने परिवारजनों से मिला । पिता से मिला । यात्रा के सुनाए । गुरुदेव की मृत्यु का शोक मंद पड़ा। कोशा पुन: अपनी साधना में संलग्न हुई। दिन आनन्दपूर्वक बीतने लगे।
संस्मरण
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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