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________________ ३०. विनाश का मंत्र महामंत्री शकडाल का दूसरा पुत्र श्रीयक यौवन की दहलीज पर पैर रख चुका था। महामंत्री उसके विवाह की तैयारी करने लगे। लग्न के प्रसंग में सम्राट और अन्य क्षत्रिय राजा तथा राजपुरुष आने वाले थे। उनको भेंट क्या वस्तु दी जाए, इस पर महामंत्री ने गहरा विचार किया। अनेक दिनों के बाद महामंत्री ने यह निश्चय किया कि भेट देने के लिए रत्नों की वस्तुओं से नये-नये शस्त्र उचित रहेंगे। क्षत्रिय सुभट रत्नों से ज्यादा महत्त्व शस्त्रों को देते हैं। शस्त्र पराक्रम के सूचक हैं। निश्चय करने के पश्चात् महामंत्री ने मगध के सर्वश्रेष्ठ शस्त्र-निर्माताओं को आमंत्रित कर अपनी सारी भावना उनको समझाई। शस्त्र-निर्माताओं ने नये-नये शस्त्र निर्मित करने की बात स्वीकार की। महामंत्री ने तत्काल उनकी साधन-सामग्री जुटाई और वे शस्त्र-निर्माता शस्त्र-निर्माण में लग गए। ग्रामवास करने वाला वररुचि एक दिन प्रयोजनवश पाटलीपुत्र में आया। अपने मित्रों से वह मिला। सुकेतु ने वररुचि का उचित सत्कार करते हुए कहा-'कविराज! तुम तो केवल काव्य के मायाजाल में ही फंसे रहे। न तुम्हारी वेदना शान्त हुई और न मेरी आशा पूरी हुई। आज शकडाल अपने आसन पर गर्वोन्नत होकर बैठा है।' वररुचि बोला- 'महाराज! शकडाल को पराजित करना सहज नहीं है। वे वृद्ध अवश्य हुए हैं, परन्तु उनकी बुद्धि वैसी ही है।' 'व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान हो, वह जीवन में कभी पराजित नहीं होता, यह कभी संभव नहीं है।' सुकेतु ने कहा। 'महाराज! सुकेतु के साथ बुद्धि का संग्राम करने के लिए मैं योग्य नहीं रहा। मेरी प्रतिष्ठा समाप्त हो चुकी है। मैं अपने विश्वास को खो बैठा आर्य स्थूलभद्र और कोशा १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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