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मौनभाव से बैठे हुए दो परिचारकों में से एक भिक्षु उठा और एक शुक्ति जितनी तरल औषध आचार्य के मुंह में उड़ेली।
कोशा स्थिर दृष्टि से आचार्य को देख रही थी। उसने सोचा-आचार्य महान हैं। इनके कारण ही आज मैं भारत की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना बन सकी हूं।
स्थूलभद्र ने विनम्र स्वर में कहा- 'महात्मन् ! आपको बोलने में कष्ट हो रहा है। आप धर्मभाव में लीन रहें। कुछ बोलने का प्रयत्न न करें। हम आपकी सेवा करने के लिए ही यहां आए हैं।'
दूसरे दिन मालव के सर्वश्रेष्ठ वैद्य शंकर भट्ट आए। उन्होंने बारबार आचार्य के शरीर का परीक्षण किया और उचित औषधि की व्यवस्था की।
खण्ड में से बाहर निकलने के पश्चात् कोशा ने वैद्यराज से कहा'वैद्यराज! जिस किसी उपाय से आप आचार्य को बचाएं। किसी भी कीमत पर मैं आचार्य को खोना नहीं चाहती। कीमती से कीमती औषधि देने में आप संकोच न करें।'
वैद्यराज बोले- 'मां! मैं आपसे परिचित नहीं हूं। किन्तु आपके कथन से अनुमान होता है कि आप आचार्यदेव के निकट के सम्बन्धी हैं। जगत् में रोग का उपाय है, किन्तु मृत्यु का कोई उपाय नहीं है। आचार्यदेव एक सप्ताह से अधिक नहीं निकाल पाएंगे।'
और ऐसा ही हुआ।
एक सप्ताह के बाद आचार्यदेव दिवंगत हो गए। भारतवर्ष के महान संगीताचार्य कुमारदेव अब इस संसार में नहीं रहे।
पितातुल्य गुरुदेव के अवसान से कोशा का मन अत्यन्त दुःखित हो गया। महान गुरु के वियोग से उसका हृदय रो पड़ा। वह अनेक संस्मरणों को याद कर फफक-फफककर रोने लगी।
स्थूलभद्र ने प्रियतमा को शान्त करने का प्रयत्न किया।
उज्जयिनी से वे देशाटन के लिए निकले। जब वे पुन: पाटलीपुत्र में आए तब सात मास गुजर चुके थे।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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