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कोशा ने आचार्यदेव के चरण स्पर्श किए। आचार्य ने आंखें खोलीं, देखा कि उनकी प्रिय शिष्या पुत्रीतुल्य लालित-पालित कोशा आ गई है।
कोशा ने धीमे स्वरों में कहा- 'गुरुदेव! आपका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है।'
'पुत्री ! शरीर का कोई दोष नहीं है। शरीर ने इस अभागी आत्मा को लम्बे समय तक साथ रखा है। अब शरीर में वह शक्ति नहीं है कि आत्मा को टिकाये रख सके'-कहकर आचार्यदेव हंस पड़े। उन्होंने पूछा- 'प्रवास में कोई कष्ट तो नहीं हुआ? मैं जानता था कि तू अवश्य ही आएगी। किन्तु इतनी शीघ्र आएगी, यह कल्पना नहीं थी।'
इतने समय तक गुरुदेव को एकटक निहारते हुए स्थूलभद्र बोला, 'महात्मन् ! आपने मुझे नहीं पहचाना?'
'मेरी कोशा के प्रियतम को क्या मैं नहीं पहचानता? तुम मेरे मित्र के पुत्र हो। तुम्हारे आगमन से मेरा चित्त अत्यन्त आनन्दमय और प्रफुल्लित बना है। महामंत्री कुशल तो हैं ?'
'जी हां! आपके आशीर्वाद से वे कुशल हैं।' स्थूलभद्र ने कहा।
आचार्य ने कोशा से कहा- 'बेटी! तुझे देखने के लिए मेरे प्राण छटपटा रहे थे। मुझे लग रहा था कि तुझे देखने के लिए ही मेरा जीवन टिक रहा है।'
कोशा बोली- 'गुरुदेव ! ऐसा न कहें।'
'पुत्री ! यह सनातन सत्य है। इस सत्य से मन क्यों कंपित हो? तुझे सुखी देखकर मैं तथागत के चरणों में अपने मन को एकाग्र कर सकूँगा। यहां बैठे-बैठे मैंने तेरी चित्रशाला की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनी है। मेरा मन होता है कि एक बार मैं पाटलीपुत्र जाकर उस चित्रशाला को नजरों से देखू। किन्तु रोग उत्तरोत्तर हठीला बनता गया। अब मैं यहीं से आशीर्वाद देता हूं कि तेरी चित्रशाला भारत का गौरव बने, प्रेरणा बने।' ऐसा कहतेकहते आचार्य के श्वास का वेग बढ़ा।
स्थूलभद्र ने आचार्य के कपाल पर हाथ रखा।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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