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२६. आचार्य का निधन
सत्तर दिनों तक निरन्तर प्रवास करते-करते आर्य स्थूलभद्र और कोशा उज्जयिनी के परिसर में पहुंचे। प्रवास अत्यन्त श्रमपूर्ण रहा।
संघाराम नगरी के पश्चिम भाग में था । रथकार पूछताछ कर रथ को संघाराम की ओर ले गया।
कोशा ने स्वामी से कहा- 'आर्यपुत्र ! एक बात याद आ गई है।' 'कौन-सी बात ?'
'मालवकुमार मेरे पर मुग्ध बना था और मैंने उसे सबक सिखाया था। आज वही उज्जयिनी का राजा बना हुआ है। इसलिए यहां हमें अपना मूल परिचय दिए बिना रहना ही उचित है।' कोशा ने कहा ।
स्थूलभद्र ने हंसते हुए कहा - ' रूप ! चिन्ता का कोई कारण नहीं है। स्थूलभद्र की पत्नी की ओर आंख उठाकर देखने की शक्ति बेचारे मालवपति कहां! तुझे भय नहीं रखना है।'
रथ संघाराम में प्रवेश कर गया।
संघाराम के संचालकों ने अतिथियों का स्वागत-सत्कार किया और उनके अनुकूल व्यवस्था का प्रबन्ध किया ।
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आचार्य कुमारदेव अत्यन्त शीर्ण हो गए थे। शरीर पर वात और कफ के विकार का अधिकार हो चुका था । उज्जयिनी नगरी के उत्कृष्ट वैद्य शंकर भट्ट की चिकित्सा चल रही थी । वैद्यराजजी की औषधि के प्रभाव से आचार्य की जीवनी-शक्ति टिक रही थी । वैद्यराज ने स्पष्ट बता दिया था कि यह यात्रा अंतिम है। बचने की तनिक भी आशा नहीं है। स्थूलभद्र और कोशा- दोनों आचार्य की शय्या के पास गए। उस समय आचार्य आंखें मूंदकर 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का जाप कर रहे थे। उनके मानस-पटल पर तथागत की सौम्य मूर्ति नाच रही थी ।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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