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________________ मगधेश्वर ने मंत्री से पूछा - 'गंगाजी की अप्रसन्नता का कारण क्या 'उसका कारण मैं हूं, महाराज ! वररुचि ने अभी तक अपना मायाप्रपंच नहीं छोड़ा है। गंगाजी की ओर से मिलने वाला पुरस्कार मेरे हाथ में आ गया है। देखें, यह रही थैली ।' कहकर मंत्री ने स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली बाहर निकालकर रख दी। है ? वररुचि ने देखा। आंखें खुली की खुली रह गई । उसको काटो तो खून नहीं। गंगा में सदा-सदा के लिए समा जाने के लिए वह इधर-उधर देखने लगा। सुकेतु भी घबरा उठा। महामंत्री की बुद्धि के समक्ष विजय पाने की आशा व्यर्थ है, ऐसा उसने जान लिया । मंत्रीश्वर बोला- 'महाराज ! इस पाखंडी कवि ने अपने कुछेक मित्रों के सहयोग से प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। इसने गंगा में एक यंत्र रखा है। उस पर वह स्वर्ण मुद्राओं की थैली रख जाता है। काव्य पूरा कर उस यंत्र को पैर से दबाता है और वह थैली ऊपर उछलती है। उस थैली को वह हाथ में थाम लेता है । वह लोगों को यह दिखाता है कि कवि के काव्य-पाठ से प्रसन्न होकर गंगा ने यह भेंट दी है । कवि देवताओं को भी प्रिय है ।' 'इतनी भयंकर अधमता !' सम्राट् ने कहा और वररुचि को रोषभरी नजरों से देखा । महामंत्री बोला- 'महाराज ! आज के प्रसंग ने कवि को सबक सिखा दिया है। अब हमें यहां से चल देना चाहिए । ' सम्राट् चले गए। जनता ने वररुचि को धिक्कारा । १६५ Jain Education International आर्य स्थूलभद्र और कोशा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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