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धीरे-धीरे गंगा में उतरा । यंत्र के पास जाकर उसने उच्च स्वर से गंगा का जय-जयकार किया ।
महामंत्री मुसकरा रहे थे। वे मगध सम्राट् के पास ही खड़े थे। कनकसुन्दर द्वारा दी गई स्वर्ण मुद्राओं की थैली उन्होंने एक कपड़े में लपेटकर अपने हाथ में ही थाम रखी थी।
वररुचि ने मधुर स्वर से काव्य प्रारम्भ किया। गंगा की स्तुति को सुन लोग आत्मविभोर हो गए। कवि का हृदय उल्लास से नाच उठा। कवि के नयन विजय की रक्तिमा प्रकट कर रहे थे। काव्य पूरा हुआ। कवि का पैर यंत्र के एक भाग पर टिका । कवि ने मुग्ध नेत्रों से गंगा की ओर निहारा और स्वर्ण मुद्राओं की थैली थामने के लिए हाथ लम्बे किए।
अरे, यह क्या ? स्वर्ण मुद्राओं की थैली क्यों नहीं उछली ? क्या यंत्र कोई खराबी आ गई? क्या आज ही ऐसा कुछ घटित होना था ? महाकवि घबरा उठा। उसकी आकुलता नयनों में झांकने लगी। अपनी आकुलता को छिपाने के लिए कवि ने गंगा की स्तुति में दूसरा काव्य प्रारम्भ किया। काव्य पूरा कर यंत्र को दबाया। किन्तु हाथ कुछ भी नहीं लगा ।
कवि वररुचि का मुंह श्याम हो गया। जनता आश्चर्य-भरी दृष्टि से उसे देखने लगी । आज गंगाजी प्रसन्न क्यों नहीं हो रही हैं ? कवि की साधना में कुछ त्रुटि आ गई प्रतीत होती है।
लोग अधीर नेत्रों से कभी कवि की ओर और कभी गंगा की ओर देखने लगे ।
महामंत्री ने गम्भीर स्वर से कहा- 'महाकवि ! आज गंगा प्रसन्न नहीं होंगी । मगधेश्वर के आगमन से गंगा लज्जित हो गई हैं। किन्तु मैं तुम्हारे काव्य-पाठ को सुनकर पूर्ण प्रसन्न हूं। यहां आओ और मेरे से पुरस्कार प्राप्त करो।'
महामंत्री के इस कथन को कोई नहीं समझ सका । दूर खड़े सुकेतु आदि विशिष्ट व्यक्ति असमंजस में पड़ गए । वररुचि की मानसिक पीड़ा अपार हो गई। वह इतना अशक्त हो गया था कि एक पैर आगे बढ़ाना भी उसके लिए भारी हो गया था।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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