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'जैसी आज्ञा!' कहकर कनकसुन्दर चला गया।
तीन दिन बीत गए । चौथे दिन कनकसुन्दर महामंत्री से मिला। उसने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा- 'महाराज! वररुचि ने एक यंत्रशिल्पी की सहायता से एक अपूर्व यंत्र बनाया है। उस यंत्र को गंगाजी में रखा गया है। प्रत्येक रात्रि के मध्य भाग में वररुचि उस यंत्र पर स्वर्ण-मुद्राओं से भरी एक थैली रख जाता है। प्रात: वह गंगा में उतरता है। हजारों की भीड़ जयनाद करती है। वह उसी स्थान पर रुकता है, जहां यंत्र स्थापित किया गया है। वह गंगा की स्तुति में काव्यपाठ करता है और तत्काल अपने पैरों से उस यंत्र को दबाता है। उसके फलस्वरूप यंत्र पर रखी हुई थैली ऊपर उछलती है। वररुचि उस थैली को संभाल लेता है। उस यंत्र-रचना की कल्पना वररुचि ने की है, ऐसा शिल्पी कह रहा था। इस रहस्य का उद्घाटन न हो, ऐसा सुकेतु ने यंत्र-शिल्पी को सावचेत किया है।'
महामंत्री ने हंसकर कहा- 'तेरे पर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। परसों मैं मगधेश्वर को साथ लेकर महाकवि की काव्य-साधना देखने जाऊंगा। तुझे उस रात्रि को एक काम करना है। जब महाकवि स्वर्ण-मुद्राओं की थैली यंत्र पर रखकर चला जाए, तब तुम गुप्त रूप से उस थैली को लेकर मेरे पास आ जाना।'
'आपकी आज्ञा के अनुसार ही कार्य करूंगा।' कहकर कनकसुन्दर चला गया।
दूसरे दिन राजसभा में यह संदेश प्रचारित किया गया कि महाकवि वररुचि की काव्य-साधना से गंगादेवी प्रसन्न हुई है। मगधेश्वर अपने पूरे मंत्रीमण्डल के साथ गंगा के किनारे जाएंगे और महाकवि की साधना को प्रत्यक्ष देखेंगे।
दूसरे दिन कल्याण घाट के पास हजारों नर-नारी एकत्रित थे। मगधेश्वर अपने राजपुरुषों के साथ वहां आए। महाकवि वररुचि उत्तम वस्त्रों को पहन जनता के नमस्कार को स्वीकारता हुआ घाट पर आया। महाकवि ने सम्राट् को आशीर्वाद दिया। वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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