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झुकाएगा। हम भी इस बात का इतना प्रचार करेंगे कि स्वयं मगधेश्वर आश्चर्य में डूब जाएंगे।'
वररुचि के पराजित हृदय में नये चैतन्य का संचार हुआ। पन्द्रह दिनों के बाद पाटलीपुत्र के घर-घर और आंगन-आंगन में एक ही चर्चा सुनाई देने लगी-महाकविवररुचि ने अपनी काव्य-प्रतिभा के द्वारा गंगादेवी को प्रसन्न किया है। महाकवि गंगादेवी के मध्य खड़े होकर एक काव्य सुनाते हैं और गंगादेवी प्रसन्न होकर एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली भेंट करती हैं। सब इसे देख सकते हैं।
नगर के लोग गंगा की ओर जाने लगे। महाकवि वररुचि गंगा के कल्याण घाट से थोड़ी दूर पर, कमर तक पानी में खड़ा होता और गंगा की स्तुति करता। स्तुति के पूर्ण होते ही तत्काल गंगा के जल से स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली उछलती और महाकवि उसे हाथों में थाम लेते। हजारों लोग यह दृश्य देखकर महाकवि के चरणों में फूल चढ़ाते। जनता महाकवि के काव्य से मुग्ध होकर वहां से लौटती। इस घटना ने आश्चर्य पैदा कर डाला। नगर के नर-नारी कवि के दर्शन करने प्रतिदिन गंगा की ओर जाने लगे। आस-पास के गांवों के हजारों लोग भी वहां आने लगे।
महामंत्री के कानों में इसकी चर्चा पड़ी। उन्होंने अपने विश्वस्त गुप्तचर कनकसुन्दर को इस घटना की सच्चाई जानने का दायित्व सौंपा। तीन-चार दिनों के बाद उसने अपनी खोज का परिणाम बताते हुए कहा'महाराज ! वररुचि के काव्य से गंगाजी प्रसन्न होकर स्वर्ण मुद्राएं देती हैं। गंगाजी की प्रसन्नता के पीछे रथ-सेनापति सुकेतु, अर्थमंत्री तथा अन्यान्य कुछेक व्यक्तियों की गुप्त योजना का आभास मिला है।'
'गुप्त योजना का होना सम्भव है। वे सब लोग बुद्धिहीन वररुचि को आगे रखकर गम्भीर षड्यंत्र कर रहे हैं। किन्तु तुम्हारी छानबीन अभी अपूर्ण है। गंगाजी इस प्रकार कभी प्रसन्न नहीं हो सकतीं। इस योजना की पृष्ठभूमि में कोई-न-कोई रहस्य अवश्य है। तुम्हें इस रहस्य की खोज कर मुझे बताना है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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