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वररुचि इन विचारों में उलझ रहा था। इतने में ही सुकेतु का एक सैनिक आया और उसने सांझ तक रथपति से मिलने का निमंत्रण दिया। महाकवि के प्राणों में आशा का पुन: संचार हुआ।
___ रात्रि का दूसरा प्रहर। वररुचि सुकेतु के विशाल भवन में गया। परिचारिकाओं ने उसका स्वागत किया। अतिथिगृह में वह एक आसन पर जा बैठा। सुकेतु आया। नमस्कार कर वह बैठ गया। वररुचि ने आशीर्वाद दिया। सुकेतु ने पूछा- 'महाकवि! शकडाल को पराजित करने की कोई तमन्ना शेष रही या नहीं?'
___'महाराज! एक नहीं, लाखों तमन्नाएं मन में हैं। मैं अकेला क्या कर सकता हूं। मैं सच्चा था, फिर भी मुझे पराजित होना पड़ा। और आप लोगों के श्रम को शकडाल ने प्रपंच रचकर बरबाद कर डाला। शकडाल के समक्ष पुन: बुद्धि का संग्राम करने से पूर्व मुझे अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करनी होगी।'
एक राजपुरुष ने कहा- 'कविवर! आप सच्चे हैं, यह हम भी मानते हैं। किन्तु आप वृद्ध शकडाल के दाव में फंसकर पराजित हुए हैं। परन्तु अब ऐसा कोई उपाय नहीं है कि आप अपनी खोयी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर सकें।'
'उपाय क्यों नहीं?' तीन-तीन महीनों के चिन्तन से अनेक उपाय सामने आए हैं। शकडाल को सदा के लिए अस्त करने की अनेक योजनाएं बनाई हैं।'
'तो फिर?' 'सहयोग के बिना क्या हो सकता है?'
'महाकवि! मेरे और मेरे सहयोगियों का तुमको पूरा सहयोग प्राप्त होगा। कहो, तुमने क्या उपाय सोचा है ? सुकेतुने प्रोत्साहित करते हुए कहा।
महाकवि ने प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय कह सुनाया। सुनकर सबके मन में आशा का दीप जगमगा उठा । महाकवि की तीव्र बुद्धि की सबने प्रशंसा की। सुकेतु ने कवि की पीठ थपथपाते हुए कहा'महाकवि! तुमने जो उपाय बताया है, वह असाधारण है। तुम भागीरथी को प्रसन्न करो। पाटलीपुत्र तो क्या, सारा मगध देश तुम्हारे चरणों में सिर
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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