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२७. मातृत्व की लालसा
आम्रवाटिका में निर्मित ग्रीष्मगृह में देवी कोशा अपने स्वामी स्थूलभद्र के साथ एक झूले पर झूल रही थी। कोशा की छोटी बहिन चित्रलेखा एक शय्या पर सो रही थी।
हंसनेत्रा और चित्रा-दोनों सखियां एक ओर बैठी थीं। चित्रा के हाथों में वीणा थी। सारंगी की सुमधुर स्वरलहरियां वातावरण में व्याप्त हो रही थीं। आठ-दस हिरन ग्रीष्मगृह में विश्राम कर रहे थे। विभिन्न प्रकार के पक्षियों के कलरव से चारों दिशाएं मुखरित हो रही थीं। कोयल का पंचम स्वर बहुत मधुर लग रहा था। स्वामी के हृदय पर मस्तक रखकर कोशा झूले का आनन्द ले रही थी। कोशा की रूपछटा से ग्रीष्मगृह अपूर्व हो रहा था।
एक परिचारिका ग्रीष्मगृह के द्वार पर आकर रुकी। कोशा ने प्रश्नभरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। परिचारिका ने विनम्रभाव से कहा- 'राजसभा से लौटे हुए उद्दालक आप श्रीमान से मिलना चाहते हैं।'
स्थूलभद्र ने कहा- 'उसको यहां भेज दो।'
परिचारिका प्रणाम कर चली गई। कोशा ने पूछा- 'क्या आपने उद्दालक को राजसभा में भेजा था?'
'हां, आज पिताश्री और वररुचि के विवाद का परिणाम आने वाला
था।'
'काव्य-रचना संबंधी विवाद हुआ था। क्या उसी के लिए कह रहे हैं?'
'हां।' __ 'जीत किसकी हुई, यह जानने की आतुरता है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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