SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओर देखने लगे। सम्राट् ने मधुर स्वरों में कहा- 'महामंत्री जी के आक्षेप का उत्तर महाकवि क्या देना चाहते हैं?' . वररुचि ने विनम्र भाव से कहा- 'मैं महाराजाधिराज के चरणों का स्पर्श कर कहता हूं कि महामंत्री को किसी ने भ्रान्त किया है। मेरे काव्य नव्य हैं और वे अश्रुतपूर्व हैं।' राजसभा ने महामंत्री की ओर देखा। महामंत्री ने मुसकराते हुए कहा-'महाकवि! असत्य के संरक्षण के लिए सम्राट् के चरण-स्पर्श की बात मत करो। मेरा तुम्हारे प्रति आदरभाव है। मैंने जो कुछ कहा है, वह कपोलकल्पित नहीं है, यथार्थ है।' 'मैं भी निश्चयपूर्वक कह रहा हूं कि ये सारे श्लोक मेरे द्वारा रचित हैं, नये हैं। आपको व्यर्थ ही कोई भ्रान्ति हुई है। वररुचि ने दृढ़तापूर्वक कहा। सम्राट् ने महामंत्री की ओर निहारा। महामंत्री ने कहा- 'राजन्! व्यर्थ का विवाद होगा। कल राजसभा में कवि द्वारा सुनाए गए श्लोक यदि कोई दूसरा सुनाए तो आपको मानना होगा कि श्लोक नव-निर्मित नहीं हैं, चुराए हुए हैं। यदि यह बात सिद्ध नहीं होगी तो मैं विनम्रतापूर्वक कवि से क्षमा-याचना करूंगा और दस हजार स्वर्ण मुद्राएं उपहार में दूंगा।' 'ठीक है'-वररुचि ने कहा। सभा के सदस्य बोल उठे-- 'सत्य और असत्य का निर्णय हो जाएगा।' सभा विसर्जित हुई। सुकेतु ने पूछा- 'कविवर! महामंत्री ने यह विस्फोट क्यों किया?' ___'अपना स्थान सुरक्षित रखने के लिए। कल राजसभा में महामंत्री को पराजय का मुंह देखना होगा। मेरी विजय होगी और मगधेश्वर का विश्वास भी प्राप्त होगा। ईश्वर की कृपा से ही मुझे यह योजना सूझी है। मैं नहीं जानता था कि महामंत्री शकडाल का गर्व इतना शीघ्र खण्ड-खण्ड हो जाएगा। अब आप निश्चिंत रहें, कोशा को अब हमारे से कोई नहीं छीन सकता। कोशा हमारी और हम कोशा के।' आर्यस्थूलभद्र और कोशा १५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy