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की ओर देख रहे थे। महामंत्री ने उनकी प्रसन्नता को मुसकराकर स्वीकार किया। महामंत्री जानता था वररुचि के स्वभाव को। उसके गुप्तचरों ने महाकवि की अनेक योजनाओं को खंडित कर दिया था। सम्राट् ने कवि की ओर देखकर कहा- 'महाकवि! तुम्हारे काव्य से मैं अत्यन्त आह्लादित हुआ हूं। मगध की राजसभा को तुम प्रतिदिन अपनी वाणी से आप्लावित करते रहना, यह मेरी आज्ञा है।'
राजसभा ने वररुचि का जय-जयकार किया। सारी सभा जयनाद से गूंज उठी। विजय के हर्ष से मुसकराता हुआ कवि सुकेतु के साथ सभा से बाहर निकला।
अब नियमित रूप से वररुचि की काव्यधारा राजसभा में बहने लगी। सम्राट् परम प्रसन्न था। वह प्रतिदिन कवि को पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं उपहार में देने लगा। इससे कवि का और सुकेतु का उत्साह बढ़ा और वररुचि को यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वह मगध-सम्राट् को एक सप्ताह में अपनी मुट्ठी में दबोच लेगा। सुकेतु ने भी सोचा कि महामंत्री की सत्ता को तोड़ने का यह सफल प्रयत्न हो रहा है।
बीस दिन बीत गए। महामंत्री ने सोचा-यह तो दूध पिलाकर सांप को पालने जैसा प्रयत्न हो रहा है। किसी दिन यह सांप काट सकता है।' __महामंत्री ने सोचा और गम्भीर चिन्तन के बाद एक योजना बनाई। इक्कीसवां प्रभात । राजसभा जुड़ी हुई थी। उस दिन वररुचि ने सद्य: निर्मित नये श्लोकों का वाचन किया। सभी सभासद् हर्ष-विभोर हो गए। महामंत्री ने वररुचि की ओर मुड़कर कहा-'कविवर, जो काव्य कहा है, वह नया नहीं है। तुम प्रतिदिन पुराने श्लोकों को ही सुनाते आ रहे हो और हम सबको मूर्ख बनाकर मगधेश्वर की प्रसन्नता का दुरुपयोग कर रहे हो।'
यह सुनकर सारी राजसभा आश्चर्य में डूब गई। सम्राट् को भी चिन्तन करने के लिए विवश होना पड़ा। वररुचि को आश्चर्य हुआ। उसने सोचायह कैसी विडम्बना । मैं प्रतिदिन नये-नये श्लोक बनाता हूं, फिर भी महामंत्री उन्हें पुराना कहते हैं, यह क्यों? सभी सभासद् कवि और महामंत्री की
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आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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