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________________ 'इससे बहुत कुछ होगा। सम्राट् मेरे नवीन काव्यों से प्रसन्न होगा। मैं सम्राट् को अपने काव्य से जीत लूंगा। फिर शकडाल को पछाड़ने में कोई समय नहीं लगेगा।' 'कवि केवल कल्पना का ही पुजारी होता है। पहली योजना के अनुसार यदि मुझे कार्य करने का अवसर दिया जाता तो मैं कभी का स्थूलभद्र को स्वर्ग में पहुंचा देता।' 'तुम सैनिक हो। तुम्हारी दृष्टि दूर तक नहीं जाती। स्थूलभद्र को मार देने मात्र से कोशा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोशा प्राप्त होगी स्थूलभद्र को पराजित करने से। प्रेम को तलवार से नहीं जीता जा सकता। प्रेम को विजय से ही जीता जा सकता है।' 'यह विजय भी प्राप्त करने में दो-चार दशक तो लग ही जाएंगे। अच्छा, बताओ, भावी योजना क्या है ?' 'तीन दिन के बाद राजसभा में मेरा काव्य सबको मुग्ध कर देगा और फिर निरन्तर मेरी काव्यधारा प्रवाहित होती रहेगी। तुम भी उस दिन राजसभा में उपस्थित रहना।' वररुचि ने अपनी योजना बताई। ..'मैं जरूर आऊंगा। परन्तु तुमको देखते ही महामंत्री शकडाल तुम्हारी योजना जान जाते हैं और उसको क्रियान्वित करने का अवसर ही नहीं देते। फिर भी मुझे तुम्हारी शक्ति पर विश्वास है। इसी आशा पर मैं अपने भीतरी दर्द को दबा रहा हूं।' दोनों ने सूक्ष्मता से विशेष मंत्रणा की और अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थान कर दिया। तीसरे दिन राजसभा जुड़ी। महाकवि वररुचि सरस्वती के पुत्र की भांति एक श्वेत आसन पर बैठा। सारी सभा महाकवि की काव्यधारा में डुबकियां लेने के लिए तत्पर थी। सुकेतु भी वररुचि की विजय का प्रत्यक्ष दर्शन करने आ गया था। सम्राट् आए। सारी सभा ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया। महाकवि संस्कृत के सुन्दर श्लोकों का उच्चारण करने लगा। सम्राट् काव्य-श्रवण से आत्म-विभोर हो रहे थे। वे बार-बार महामंत्री आर्य स्थूलभद्र और कोशा १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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