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चित्रशाला की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उसको देखने के लिए स्त्री-पुरुष दूर-दूर देशों से आने लगे। जो भी इस मनमोहक चित्रशाला की प्रशंसा सुनता, वह इसे देखने के लिए ललचा उठता। राजा और रानी भी इसे देखने आए और इस महान कार्य के लिए कोशा को सवा लाख स्वर्ण मुद्राएं भेंट कर चित्रशाला की प्रशंसा में चार चांद लगा दिए।
इन तीन वर्षों में एक ओर भारतीय कला का यह भव्य स्मृति मन्दिर तैयार हुआ और दूसरी ओर सुकेतु और वररुचि की सारी कल्पनाएं, सारे षड्यंत्र विफल हो गए। महामंत्री शकडाल के वर्चस्व को न्यून करने के प्रयत्न में वररुचि असफल रहा। सुकेतु कोशा को पाने की लालसा में केवल तड़पता ही रहा। उसने पार्वत्य प्रदेशों में जबरदस्त विजय प्राप्त की थी, परन्तु उस विजय का सत्कार करने वाली कोशा जैसी कोई सुन्दरी उसे प्राप्त नहीं थी । यह दुःख सुकेतु के हृदय को तिल-तिल कर जला रहा था । सुकेतु मगध की रथसेना का पराक्रमी सेनापति था। वह अपने कार्य में सदा व्यस्त रहता था। परन्तु उस व्यस्तता में भी वह कोशा को भुला नहीं सका। पार्वत्य प्रदेश की विजय के पश्चात् उसने कोशा को पाने के लिए वररुचि के साथ बैठकर अनेक योजनाएं बनाई थीं, पर वे सब व्यर्थ ही रहीं ।
आज पुनः दोनों - सुकेतु और वररुचि योजना बनाने के लिए एकत्रित हुए थे। महाकवि वररुचि आज कुछ विशेष उत्साहित दिख रहा था । उसने आशाभरी वाणी में कहा - 'सेनापति ! वर्षों का प्रयत्न आज सिद्ध होने जा रहा है।'
सुकेतु ने आचार्य से पूछा- 'कविवर ! कैसा प्रयत्न ? तुम्हारा प्रयत्न और तुम्हारी सिद्धि अनन्त है । '
'इस बार शकडाल को हार माननी ही होगी ।'
सुकेतु रुक्षता से हंस पड़ा।
वररुचि बोला- 'मैं सत्य कह रहा हूं। सम्राट् ने मेरे काव्य को सुनने की स्वीकृति दी है।' 'इससे क्या ?'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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