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________________ बनाए जा रहे थे। महात्मा भैरवनाथ एक स्थान पर मृगचर्म पर बैठकर आदेश-निर्देश दे रहे थे। लग रहा था, आज कोई विशिष्ट अतिथि आश्रम में आने वाला है। देवी रूपकोशा के अद्भुत नृत्य की प्रशंसा रसेश्वर भैरवनाथ सुन चुके थे। आज वे उस कलामूर्ति को साक्षात् देखेंगे। समय हुआ। महाराज मगधेश्वर, मगधेश्वरी तथा सारा राजपरिवार आश्रम में प्रविष्ट हुआ। रूपकोशा भी अपनी परिचारिकाओं के साथ रथ से उतरी। सिद्धरसेश्वर ने सबको आशीर्वाद दिया। वे सभी मेहमानों को लेकर रसशाला में आए और एक यंत्र के पास खड़े रहकर बोले- 'यह सर्पमुख यंत्र है। इससे स्वर्ण निर्माण सहज हुआ है। इस यंत्र से इतना ताप दिया जा सकता है कि किसी भी धातु का अर्धपटिका में मरण दिया जा सकता है। स्वर्णसिद्धि का प्रयोग करता हूं। आप सब साक्षात् देखें।' सिद्धरसेश्वर ने आर्य तूणीर को स्वर्णसिद्धि की सारी सामग्री प्रस्तुत करने की आज्ञा दी। सामग्री प्रस्तुत हुई। शिष्यों ने एक मृत्तिका पात्र में तांबे के टुकड़े डाले। महात्मा भैरवनाथ ने महाराजा मगधेश्वर को सम्बोधित कर कहा- 'महाराज! इस पात्र में दस तुला ताम्र है। यह इस यंत्र के माध्यम से तपकर कुछ ही क्षणों में पिघल जाएगा। उसमें फिर 'त्रिकंटक' नामक वनस्पति का रस डाला जाएगा। फिर दस गुना प्रमाण पारद डालेंगे। कुछ ही क्षणों में रंग-बिरंगेधूम के गोले निकलेंगे और फिर स्वर्ण तैयार हो जाएगा।' महान वैज्ञानिक भैरवनाथ की आज्ञा से सर्पमुख भट्टी चालू हुई। वे स्वयं एक श्लोक गुनगुनाने लगे। बीस शिष्य भट्टी के चक्के को घुमाने लगे। अग्नि प्रज्वलित हुई। ताम्र पिघलकर बहने लगा। सिद्धरसेश्वर ने उसमें 'त्रिकंटक' वनस्पति का रस डाला। सबकी आंखें तरल ताम्र पर लगी हुई थीं। सब अनिमेष दृष्टि से स्वर्ण-निर्माण की कला को देख रहे थे। ताम्र का रंग कब कैसे बदलेगा, सबके मन में जिज्ञासा उभर रही थी। यंत्र का ताप प्रचण्ड हुआ। सिद्धरसेश्वर का सारा शरीर लाल-सा प्रतीत होने लगा। १३६ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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