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२४. दिव्य औषधि
पाटलीपुत्र नगर से लगभग चार कोस की दूरी पर गंगा के किनारे एक सुन्दर और रमणीय आश्रम था। उसके अधिष्ठाता थे सिद्धरसेश्वराचार्य महात्मा नागार्जुन । इस आश्रम में एक विशिष्ट रसशाला निर्मित थी ।
भगवान नागार्जुन अपने समय के विख्यात रस-विज्ञाता थे। उन्हें रससिद्धि प्राप्त थी और उनके चमत्कारों से सारा विश्व चमत्कृत था ।
पारद, गंधक, मल्ल, हरताब, मनशांति, वत्सनाभ, नागविष, शिलाविष, लोह, सुवर्ण, ताम्र, अश्व, रौप्य, बंग, नाग, वज्र, माणक, पन्ना, गोमेद, पुष्पराज, मणि, मुक्ता, प्रवाल, खर्पर आदि अनेक प्रकार के द्रव्यों से भगवान नागार्जुन परमाणुओं को आकर्षित कर उनकी सूक्ष्म शक्ति को साध चुके थे। उन्होंने इनके माध्यम से रोगहर औषधियों का निर्माण ही नहीं किया था, किन्तु मानव को दीर्घायुष्य प्रदान करने वाली दिव्य औषधि भी निर्मित कर चुके थे ।
पारद का रसशास्त्र बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था किन्तु आचार्य नागार्जुन ने उसे और अधिक सहज-सरल बनाकर अद्भुत कार्य किया था। इस आश्रम में उनकी तीसरी शिष्य परम्परा चल रही थी । आज उस आश्रम के प्राण थे सिद्धरसेश्वर महात्मा भैरवनाथ । उन्होंने अपने प्रज्ञाबल से अनेक नवीन औषधियों और कल्पों का निर्माण कर भारत में बहुत यश प्राप्त किया था । पारद से स्वर्ण निर्माण की कला अनेक व्यक्ति जानते थे। किन्तु भैरवनाथ लोह, ताम्र और बंग से स्वर्ण बनाने की विधि हस्तगत कर चुके थे।
आज आश्रम में चारों ओर हलचल हो रही थी। किसी के स्वागत में सारा आश्रम सजाया जा रहा था । स्थान-स्थान पर स्वागत कक्ष और मंच
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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