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________________ समय बीता। भैरवनाथ आचार्य ने उसमें पारद डाला । ताम्र के तरल प्रवाह में त्रिकंटक के रस का पाचन हुआ। सिद्धरसेश्वर ने हाथ ऊंचा किया। शिष्यों ने यंत्र को बन्द कर दिया। पारद के योग ने ताम्र को स्वर्ण में बदल डाला। दस तुला ताम्र दस तुला स्वर्ण हो गया। उस प्रवाही स्वर्ण को ढाला और वह कठोर होता गया। स्वर्ण तैयार हो गया। सबने देखा। आश्चर्यचकित नयन खुले के खुले रह गए। । उसने कहा- 'महाराज! स्वर्ण-निर्माण में तीन वस्तुएं आवश्यक हैं-सर्पमुखयंत्र, त्रिकंटक का रस और पारद भस्म। दो वस्तुएं सहज मिल सकती हैं, किन्तु पारद भस्म अत्यन्त कठिन है। लगभग सात वर्ष के निरंतर श्रम से इस भस्म का निर्माण किया जा सकता है। भगवान नागार्जुन ने इस क्रिया को खोजा है। पारदभस्म केवल सोना बनाने में ही काम नहीं आती, इसके प्रयोग से वृद्ध और जर्जरित पुरुष भी एक महीने में नया यौवन प्राप्त कर लेता है।' रात का प्रथम प्रहर। रूपकोशा ने 'अंगराग नृत्य' प्रस्तुत किया। आम्रपाली ने इसी नृत्य से महाराज श्रेणिक को प्रसन्न किया था। इस नृत्य के पीछे एक सुन्दर भाव छिपा है। प्रिया अपने कुपित प्रियतम को अंगराग से रूप की सजावट कर मनाती है। केवल बाहरी सजावट नहीं, किन्तु अंग-प्रत्यंग में उस प्रेम को अभिव्यक्त करती है और आत्मा को प्रेमातुर बनाती है। नृत्य चलता रहा। सिद्धरसेश्वर बहुत अचंभे में पड़े। 'अरे, क्या यही रूपकोशा है ? नहीं-नहीं, यह तो कोई इन्द्रलोक की अप्सरा है जो शाप से व्यथित होकर पति-वियोग सहन कर रही है।' नृत्य सम्पन्न हुआ। रूपकोशाने महान वैज्ञानिक को नमस्कार किया। महात्मा भैरवनाथ ने उसे दिव्य-औषधि का उपहार देते हुए कहा- 'पुत्री! तेरा रूप और यौवन चिरस्थायी रहे। तेरा तेज और कला बढ़ती रहे। पूर्णिमा की रात्रि में आर्य स्थूलभद्र और कोशा १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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