SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'प्रिये ! चिन्ता मत कर । स्थूलभद्र जैसे नपुंसक और कायर व्यक्ति के साहचर्य से तेरा यौवन शर्मा रहा था। आज तू उस पितृगृन त्यागी कुल के अंगार-स्वरूप अयोग्य बंधन से मुक्त हो गई है । ' 'सुकेतु....!' वह और कुछ नहीं बोल सकी। उसका सारा शरीर कंपित हो रहा था। 'क्या रूपमंजरी का रोष अभी तक शांत नहीं हुआ ?' कहकर सुकेतु गर्व से हंसने लगा। उसने फिर कहा- 'प्रिये ! तेरे गौर वदन पर यह रोष भी एक मूल्यवान शृंगार बन गया है।' रोष और भय से कांप रही कोशा के कानों में अश्व चरण के शब्द सुनाई दिए। उसने उस ओर देखा । एक सफेद अश्व-सा उसे कुछ नजर आया । सुकेतुकोशा का मधुर रूप आंखों से पी रहा था। उसके मन में यह निश्चय था कि यह देवदुर्लभ रूप अब मेरा बनेगा, इस रूप पर मेरा स्वामित्व होगा..... इस रूप के अमृत का पान कर मैं अमर बन जाऊंगा । गजेन्द्र ने तब कहा - 'महाराज ! रथ की गति को मंद करना होगा ।' 'क्यों?' 'नदी का किनारा निकट है ।' 'गजेन्द्र ! रथ की गति को और तीव्र करो, चाहे नदी हो, पर्वत हो या सागर हो !' सुकेतु ने सत्तावाही स्वर में कहा । 'किन्तु महाराज ! नदी का रास्ता सुगम नहीं है । वेग से चलाने से संभव है रथ उलट जाए।' गजेन्द्र ने दूर दिख रहे नदी के किनारे की ओर देखते हुए कहा । 'गजेन्द्र ! यह रथ देवी कोशा का नहीं है। किसी कोमलांगी नारी का नहीं है । यह रथ भारत के महाप्रतापी रथाध्यक्ष का है !' सुकेतु ने अहंकार से कहा । गजेन्द्र चुप रहा। और सुकेतु की दृष्टि निकट आ पहुंचे अश्वारोही स्थूलभद्र पर पड़ी। स्थूलभद्र को देखते ही वह चमका और बोला- 'गजेन्द्र ! मेरा धनुष ला.... आर्य स्थूलभद्र और कोशा १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy