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________________ २२. द्वन्द्व-युद्ध रात्रि का अंतिम प्रहर समाप्त हो रहा था। अंधेरा अपना पट उठा रहा था। प्रभात का मृदु-मधुर पवन बहने लगा। पवन वेग से जा रहा रथपति सुकेतु का रथ नन्दपुर की सीमा में पहुंच चुका था। पूर्व भारत की रूपमाधुरी देवी कोशा का मृदु हाथ सुकेतु ने बलपूर्वक पकड़ रखा था। मगधेश्वर की प्रतिष्ठा रूप राजनर्तकी आज एक रथाध्यक्ष के पंजे में फंसी हुई थी। ___ सुकेतु की वासना से सुलगती हुई दृष्टि कोशा के गौर वदन पर जा टिकी। वह कांप रही थी। कोशा का हृदय इस आकस्मिक प्रसंग से व्याकुल हो उठा। रथपति सुकेतु के आचरण ने उसे विस्मय में डाल दिया। वह सोच रही थी-इस दुराचारी के पंजे से मुक्ति मिलेगी या नहीं? कल का रसमय भूतकाल क्या कल के भविष्य की ज्वाला में झुलसकर राख हो जाएगा? क्या जगत् में मनुष्य इतना भयंकर हो सकता है? ये प्रश्न कोशा के हृदय को विचलित कर रहे थे। यौवन के प्रथम चरण में प्रविष्ट कोशा कला और संगीत से समृद्ध थी, रूप और सौन्दर्य में भरपूर थी, किन्तु वह लोक-व्यवहार से पूर्ण परिचित नहीं थी। उसे यह ज्ञात नहीं था कि विश्व में रूप के पुजारी कम होते हैं, रूप के शिकारी अधिक। वह यह भी नहीं जानती थी कि कामवासना में अंधा होकर मनुष्य मानवता को विस्मृत कर देता है, वह कर्त्तव्य को भूल जाता है, धर्म को त्याग देता है और राक्षस बनकर दौड़ता जाता है। विचारमग्न कोशा के सम्मुख हंसते हुए सुकेतु बोलाआर्य स्थूलभद्र और कोशा १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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