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________________ वररुचि चला गया। उसने इसे अपना घोर तिरस्कार समझा। वहां से चलकर वररुचि सीधा सुकेतु के शिविर में गया। वररुचि को देखकर सुकेतु उठा और उसके कन्धे पर प्रेम से हाथ रखते हुए पूछा- 'कहां से आ रहे हैं?' 'प्रात: भ्रमण के लिए निकला था। मार्ग में रूपकोशा को देखा। मेरे प्राणों में उसके प्रति सद्भावना थी। मैं उससे मिलने चला गया।' 'क्या हुआ, मित्र ?' सुकेतु ने पूछा। 'रूपकोशा केवल रूपगर्विता ही नहीं, वह विवेकहीन, गर्विली और संकुचित मनवाली भी है।' _ 'आप अन्दर आएं। लगता है, आज आपको कोई कटु अनुभव हुआ है।' वररुचि ने अपने अपमान की बात कही। सुकेतु ने हंसते हुए कहा- 'मित्र! कुपित मत बनो। कोशा ने यह अविनय किया है, तो इसका भारी मूल्य चुकाना होगा।' वररुचि बोला- 'मंत्रीपुत्र को पाकर उसकी आंखें आकाश पर चढ़ गई हैं। वह किसी को कुछ नहीं समझती। उसके लिए स्थूलभद्र ही सब कुछ है।' स्थूलभद्र का नाम सुनते ही सुकेतु के घाव हरे हो गए। कोशा को प्राप्त करने के लिए उसने कितनी कल्पनाएं की थीं। किन्तु उसका प्रयत्न सफल हो उससे पूर्व ही कोशा स्थूलभद्र की बन गई। इस प्रकार आकस्मिक ढंग से उसका पराया हो जाना सुकेतु को कचोट रहा था। उसने कोशा के अपहरण की अनेक योजनाएं बनाईं, किन्तु वह केवल कल्पना तक ही सीमित रही। कोशा जैसी रूपवती नारी स्थूलभद्र जैसे विरागी के चरणों में अपना यौवन बिछाए, यह सुकेतु को कभी मान्य नहीं था। उसने वररुचि से कहा- 'मित्र! तुम्हारा अपमान मेरा अपमान है। मैं इसका बदला अवश्य लूंगा।' ११६ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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