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'यह होने पर भी आज उसे कौन याद करता है ?'
'परन्तु काव्य में तो वह अमर है।'
'हो सकती है, किन्तु मरे हुए काव्य में अमर होने के बदले मर जाना अधिक उचित लगता है।'
'नहीं, देवी! आपका रूप काव्य के शृंगार के बिना.....' 'रूप का शृंगार नहीं होता। रूप स्वयं शृंगार है । '
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'देवी क्षमा करें। रूप की पूजा कवि ही करते रहे हैं । कवि की मित्रता के बिना रूप और कला का मूल्यांकन नहीं हो सकता। कवि की मैत्री के बिना सिद्धि का कोई अर्थ नहीं।'
'कविवर ! मैंने आपका आशय नहीं समझा ।'
'मेरी प्रशंसा तो आपने सुनी ही होगी। मगध राज्य में मेरा स्थान बेजोड़ है। मेरे जैसा मगध का सर्वश्रेष्ठ कवि आपके देव दुर्लभ रूप के चरणों में सुहागी फूल बनना चाहता है।'
कोशा हंस पड़ी।
'कविवर ! मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो-मद्य से कविता का नशा बढ़ता है या रूप का ?'
प्रश्न सुनकर वररुचि चमका।
'महात्मन्! जिस दिन मगध का कवि नर्तकी के चरणों में फूल बनेगा उस दिन देवी सरस्वती को शरमाना होगा। आपकी मगधेश्वर के राजदरबार में ही शोभा है, राजनर्तकी के चरणों में नहीं !'
'आपने मुझे सही नहीं समझा।' वररुचि ने झुंझलाकर कहा, 'मैं तो समझता था कि आप मुझे स्वीकार कर अमर बनना पसंद करेंगी।'
'कविवर ! मैंने सुना है कि सिद्धरसेश्वर भैरवनाथ हिमगिरि से आ गए हैं। आप उनसे जरूर मिलें और उत्तम औषधि का सेवन करें ।'
कोशा की वक्रोक्ति सुनकर वररुचि जल-भुन गया। उसने कहा'औषधि.... किसलिए ?'
'ज्ञान का उन्माद भी एक रोग होता है, ऐसा आयुर्वेद कहता है। आप यह न भूलें कि मैं स्थूलभद्र की अर्धांगिनी हूं।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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