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२०. अकल्पित षड्यंत्र
वसन्त का आगमन । देवी रूपकोशा ने वसन्त नृत्य प्रस्तुत किया था। उस समय हजारों प्रेक्षक उपस्थित थे। कवि वररुचि और रथपति सुकेतु भी आए थे। नृत्य पूरा हुआ। प्रेषकों ने जयनाद किया ।
वररुचि ने सुकेतु की पीठ पर मुट्ठी मारते हुए कहा - 'मित्र ! मेरी कल्पना आज पराजित हो गई। कोशा ने जो भाव नृत्य में प्रस्तुत किए थे, वे भाव कविता में नहीं गूंथे जा सकते।'
सुकेतुकोशा के उभरते यौवन और मदभरी मूर्ति को देखने के लिए तरस रहा था। उसने इधर-उधर देखा, पर कोशा अपने भवन की ओर चली गई थी ।
कवि वररुचि का मन कोशा के रूप-लावण्य में उलझ गया। दूसरे दिन वह रूपकोशा के भवन पर गया। परिचारिकाओं ने उसका स्वागत किया । कोशा से मिलने की उत्कंठा उसने व्यक्त की ।
कोशा आयी, पूछा- 'आगमन का कारण जाननी चाहती हूं।' ‘देवी! वसन्त देखने के पश्चात् मैंने यह निर्णय किया है।' 'क्या कविकर्म छोड़कर नृत्यकार बनने का !' हंसकर कोशा ने प्रश्न किया ।
कोशा का हास्य कवि के हृदय को बींध गया । वह बोला- 'कविता का त्याग नहीं हो सकता और नृत्यकार बनना सहज नहीं है। मैं आपको अपने काव्यों में गूंथकर अमर बना देना चाहता हूं।'
कोशा हंस पड़ी। उसने हंसते-हंसते कहा- 'कविराज ! क्षमा करें। मैं अमर बनना नहीं चाहती।'
'अरे, आप यह क्या कह रही हैं ? आम्रपाली की अमरता कविता पर ही निर्भर हुई ।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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