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'मुझे भी उनका पूरा परिचय ज्ञात नहीं है। छह वर्ष पूर्व उनको विदाई देने मां गई थी, इतना याद है।'
'तब तो कापालिक के प्रति सम्राट् की बहुत श्रद्धा है।'
'हां, ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु मेरे मन में इस निमंत्रण का कोई आनन्द नहीं है।'
'क्यों?' हंसते हुए स्थूलभद्र ने पूछा।
'कल मुझे रात को राजभवन में जाना पड़ेगा। मेरे से आपका वियोग...' कोशा वाक्य को पूरा नहीं कर सकी।
'मैं भी साथ चलूंगा। वियोग नहीं सहना पड़ेगा।' 'नहीं, राजभवन में आपका जाना उचित नहीं होगा।'
'अच्छा, तो मैं तुम्हारी स्मृति में यहीं हर्षविभोर होकर बैठा रहूंगा और तुम मेरे स्मरण में तल्लीन रहना। वियोग की औषधि है-स्मृति।'
कोशा स्वामी को अपलक देखती रही।
चित्रा ने खंड में प्रवेश किया। उसने कहा- 'देवी! हमारे भांडागारिक शाम्ब कापालिक के विषय में बहुत कुछ जानते हैं।'
'उनको मेरे पास बुला भेज।' कोशा ने कहा।
थोड़े समय पश्चात् भांडागारिक आया। कोशा ने कापालिक का परिचय पूछा। वह जितना जानता था, वह सारा कह सुनाया। कोशा को बहुत आश्चर्य हुआ।
गंगा के एक किनारे गहन जंगल में शाम्ब कापालिक का भयंकर आश्रम था। इस आश्रम की स्थापना डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महामांत्रिक सुवर्ण कापालिक ने की थी।
शाम्ब कापालिक को इस आश्रम में रहते साठ वर्ष बीत चुके थे। उसके अनेक शिष्य साथ रहते थे। इस आश्रम में अनेक प्रकार के तंत्रमंत्र और औषधियों के प्रयोग होते थे। वहां देवी की प्रतिमा के समक्ष नरबलि दी जाती थी। और भी अनेक प्रकार की बलि दी जाती थी। आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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