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'और.... ?' कहते हुए स्थूलभद्र ने अपना दूसरा हाथ कोशा के हाथ पर रखा। अत्यन्त मृदु स्पर्श ।
'प्रकृति की चंचल कविता !' कोशा स्वामी की ओर देखना चाहती थी, किन्तु न जाने लज्जा का भार उसकी नजरों में इतना उतर आया कि वह उस ओर देख नहीं सकी ।
'प्रकृति ।' कहकर कोशा ने स्वामी की ओर तिरछी दृष्टि से देखा । 'मात्र प्रकृति.... ?'
'उसका स्पन्दन भी....'
'बस....' स्थूलभद्र ने धीरे से कहा और कोशा को बाहुपाश में लेते हुए उसके बंकिम अधरों का एक दीर्घ चुम्बन ले लिया। जीवन और यौवन की प्रथम स्मृति ।
दाम्पत्य जीवन का प्रथम उच्छ्वास ।
स्वामी के बाहुपाश से छूटकर कोशा दूसरे वातायन के पास चली
गई।
स्थूलभद्र ने मुसकराते हुए कहा- 'प्रिये.....
कोशा ने प्रेमिल नयनों से स्वामी को देखा ।
स्थूलभद्र मृदु स्वर में बोले- 'देवी! मैंने कामशास्त्र नहीं पढ़ा है, किन्तु आज मुझे यह अनुभव हुआ है कि स्त्री का विश्व-विमोह सौन्दर्य उसकी लज्जा में निहित होता है ।'
'और पुरुष का सौन्दर्य उसकी निर्लज्जता में है क्या ?'
स्थूलभद्र ने निकट आकर कोशा को बाहुपाश में जकड़ते हुए कहा'नहीं पुरुष का सौन्दर्य है नारी-पीड़न में ।'
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' और वह भी एक अबला के पीड़न में! क्यों, ठीक है न ?'
'नहीं, एक विनयिनी के पीड़न में!' कहकर स्थूलभद्र ने फिर एक चुंबन लिया।
कोशा ने भुजपाश से छूटने का प्रयत्न किया, पर व्यर्थ । कोशा ने चीत्कार किया।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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