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'मेरा यह जीवन आपके चरणों में अर्पित है। मैं आपका हृदय अपने लिए मांगती हूं।'
स्थूलभद्र के हृदय में आत्मा का स्वर गर्ज उठा...कर्म! नियति! भवितव्यता...! वे हर्षपूर्वक बोले- 'देवी, आप....'
'अब आप मुझे बहुवचन से संबोधित न करें। 'किन्तु आप...' कोशा ने तिरछी दृष्टि से स्थूलभद्र को देखा।
स्थूलभद्र ने इस दृष्टि का तात्पर्य समझ लिया। उन्होंने कहा'कोशा! उतावल तो नहीं है?'
'मेरा यह निर्णय आज का नहीं है। सब जानते हैं....' 'क्या ?' 'आपको यदि मैं अयोग्य लगती हूं तो....' 'नहीं, कोशा! तुम ही एक स्त्री हो जिसको मैंने योग्य माना है।' कोशा और स्थूलभद्र दोनों प्रणय-सूत्र में बंध गए। दिन बीता। रात आयी। यह दोनों के जीवन की मधुयामिनी थी।
नवदम्पत्ति के सनातन मिलन की यह सुहाग रात थी। कोशा के प्राणों में जो उल्लास उभर रहा था, वह वर्णनातीत था।
रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारम्भ हो गया था। कोशा और स्थूलभद्र दोनों शयनकक्ष की ओर गए।
शयनगृह की सजावट देखकर स्थूलभद्र ने कहा- 'अहो, देवी! क्या हम स्वर्ग में तो नहीं आ गए ?'
कोशा ने तिरछी नजरों से स्वामी की ओर देखा-ओह! कितनी मादक दृष्टि
कोशा वातायन के पास गई। गंगा के शांत, नीरव जल की एकरसता में वह डूब गई।
__ स्थूलभद्र कोशा के पीछे-पीछे गए और कोशा के कंधे पर हाथ रखकर बोले- 'देवी! क्या देख रही हैं?'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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