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१८. निर्वाण के मार्ग पर
आज अभिनिष्क्रमण का दिन था। सूर्योदय से पूर्व देवी सुनन्दा सारे वैभव को त्याग कर, अपनी लाडली पुत्री रूपकोशा की ममता को विस्मृत कर निर्वाण के मार्ग पर जाने के लिए तैयारी कर रही थी।
रूपकोशा को यह स्मरण हो आया था कि मां ने आज अभिनिष्क्रमण करने की बात बहुत पहले ही बता दी थी। मां को रोक पाना उसके वश की बात नहीं रही।
मां कुक्कुटाराम विहार में पहुंच गई। साथ में सारा परिवार भी गया। वहां आचार्य कुमारदेव भी अपने शिष्यों के साथ आ पहुंचे थे। बौद्ध भिक्षु
और बौद्ध भिक्षुणियां अलग-अलग स्थानों में निवास करते थे। वहां के स्थविराचार्य अपने शिष्य-समुदाय के साथ तैयार थे। सबको बौद्ध धर्म में दीक्षा दी गई। सुनन्दा ने बौद्ध भिक्षुणी का वेश पहना।
कोशा ने माता और आचार्य को अश्रुपूरित आंखों से नमस्कार किया। 'बुद्धं शरणं गच्छामि' का जयघोष हुआ। 'संघं शरणं गच्छामि' का ललकार हुआ। 'धम्मं शरणं गच्छामि' की महाध्वनि हुई।
और राजवैभव के बीच पली-पुसी सुनन्दा खुले पैर वनवासिनी बनकर चल पड़ी। यह देखकर रूपकोशा का हृदय रो पड़ा।
'मां....प्यारी मां....!' वह रोती रही।
आज वह शोकमग्न थी। बार-बार मां की स्मृति उसे विह्वल कर रही थी। अतीत का अनावरण हो रहा था। जैसे-जैसे अतीत अनावृत होता गया, रूपकोशा का हृदय व्याकुल बनता गया। एक-एक कर अतीत की सारी घटनाएं उसके स्मृति-पटल पर नाचने लगीं।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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