SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'कोई भी स्त्री में रस नहीं होता।' 'हां।' 'तो फिर आप अपनी देवी को साथ नहीं लाए ?' 'आप भूल गई हैं। आपने हम दोनों को निमंत्रण दिया था। मेरी सहचरी मेरे साथ है।' कोशा आश्चर्य में डूब गई। क्या यह विनोद है या यथार्थ ? _ 'आप नहीं समझीं? मेरी जीवन-सहचरी उद्दालक के हाथ में ही है।' स्थूलभद्र ने स्पष्ट किया। 'ओह!' कोशा के नयन प्रकाश से भर गए। उसका प्रत्येक अवयव नाच उठा। वह बोली-'आप तो अरसिक हैं न?' 'हाँ, मैं अरसिक हूं। परन्तु पारस के स्पर्श से जैसे लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही आपके सान्निध्य का ही यह फल है'-कहकर स्थूलभद्र कोशा की ओर नजर कर हंसने लगा। माधवी दूर खड़ी-खड़ी अपनी हंसी को छिपाने का प्रयत्न कर रही थी। सब नाट्यशाला में गए। स्थूलभद्र ने वीणावादन प्रारम्भ किया। उसकी अंगुलियां वीणा को नमस्कार करने लगीं। देवी सुनन्दा मृदंग बजाने लगी। कोशा के अत्यन्त प्रिय राग 'श्री' का वादन प्रारम्भ हुआ। स्थूलभद्र धीरे-धीरे श्रीराग में तन्मय हो गए। न कोशा है, न कोशा की नृत्यशाला है, न पृथ्वी है, न आकाश है, न वायु है-कुछ भी नहीं है, केवल श्रीराग, श्रीराग और श्रीराग! राग की ध्वनि सुनकर चित्रा और उद्दालक भी आ गए थे। दो घटिका बीतीं। चार घटिका.... एक प्रहर... आर्य स्थूलभद्र और कोशा १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy